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________________ १, १, २.] कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा [ ३९ वक्खाणस्सद्धाणमाहो विसरिसमिदि ? ण ताव समाणपक्खो जुज्जदे, खेत्त-कालाणमसंखेज्जलोगत्तप्पसंगादो । तं जहा - आवलियाए असंखेज्जदिभागछेदणएहि लोगछेदणए ओवट्टिय लद्धं विरलेदूण रूवं पडि गुणगारभूदआवलियाए असंखेज्जदिभागो दादव्वो । विरलणमेत्तेसु खेत्तवियप्पेसु गदेसु ओहिखेत्तमसंखेज्जलोगमेत्तं होदि, विरलणमत्तेसु आवलियाए असंखेज्जदिभागेसु अण्णोण्णगुणिदेसु लोगुप्पत्तीदो । एत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागद्धाणे चेव ओहिखेत्तमसंखेज्जलोगमेत्तं जादभेदम्हादो उवरि गच्छमाणे सुतरामेव खेत्तस्स असंखेज्ज. लोगत्तं पसज्जदे । एदं च णेच्छिज्जदि, लोगमेत्तमुक्कस्सदेसोहिखेत्तमिदि अब्भुवगमाद।। एवं कालस्स वि असंखेज्जलोगप्पसंगो परूवेदव्यो । ण च कालो उक्कस्सओ असंखेज्जलोगो त्ति देसोहीए इच्छिज्जदि, आइरियपरंपरागदुवदेसेण देसोहिउक्कस्सकालस्स समऊणपल्लपमाणत्तसिद्धीदो। ण विदियपक्खो वि, पुग्विल्लद्धाणादो अहियद्धाणे अब्भुवगम्ममाणे पुग्विल्लदोसप्पसंगादो। ण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तखेत्तवियप्पभुवगमो वि, देसोहीए असंखेजलोगमेत्तखओवसमवियप्पाणमभावप्पसंगादो, कालस्सावलियाए असंखेज्जदिभागत्तप्पसंगादो च । .................................... ही इस व्याख्यानका अध्वान है अथवा विसदृश? उक्त दो पक्षोंमें समान पक्ष तो युक्त है नहीं, क्योंकि ऐसा होनेपर क्षेत्र और कालको असंख्यात लोकपनेका प्रसंग होगा। वह इस प्रकारसे- आवलीके असंख्यातवें भाग अर्धच्छेदोंसे लोकके अर्धच्छेदोंको अपवर्तित करके प्राप्त राशिका विरलनकर प्रत्येक रूपके प्रति गुणकारभूत आवलीका असंख्यातवां भाग देना चाहिये। विरलन मात्र क्षेत्रविकल्पोंके वीत जानेपर अवधिका क्षेत्र असंख्यात लोकप्रमाण होता है, क्योंकि, विरलन मात्र आवलीके असंख्यात भागोंको परस्पर गुणित करनेपर लोककी उत्पत्ति होती है । यहां पल्योपमके असंख्यातवें भाग अध्वानमें ही अवधिक्षेत्र असंख्यात लोक मात्र हो गया है। इससे ऊपर जानेपर स्वयमेव क्षेत्रको असंख्यात लोकपनेका प्रसंग आवेगा । और यह इष्ट नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट देशावधिका क्षेत्र लोक मात्र है, ऐसा स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार कालके भी असंख्यात लोकपनेके प्रसंगकी प्ररूपणा करना चाहिये । और देशावधिका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है, ऐसा अभीष्ट नहीं है, क्योंकि, आचार्य परम्परागत उपदेशसे देशावधिका उत्कृष्ट काल एक समय कम पल्य प्रमाण सिद्ध है। द्वितीय (असमान) पक्ष भी नहीं बनता, क्योंकि, पूर्वोक्त अध्वानसे अधिक अध्वान स्वीकार करनेपर पूर्वोक्त दोषका प्रसंग आवेगा। यदि पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रविकल्पोंको स्वीकार करें तो वह भी नहीं बनता, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करनेपर देशावधिके असंख्यात लोक मात्र क्षयोपशमविकल्पोंके अभावका प्रसंग होगा, तथा कालके आवलीके असंख्यातवें भागत्वका प्रसंग भी होगा। दूसरी बात यह है कि क्षेत्र और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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