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________________ ३८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, २. तेया-कम्मइयसरीरं तेयादव्वं च भासदव्वं च । बोद्धव्वमसंखेज्जा दीव-समुद्दा य वासा य' ॥ १४ ॥) इच्चेदीए सुत्तगाहाए सह विरोहादो । तेण कत्थ वि ओरालियसरीरं, कत्थ वि तेयासरीरं, कत्थ वि कम्मइयसरीरं, कत्थ वि तेयादव्, कत्थ वि भासादव्वं, कत्थ वि मणदव्वं कत्थ वि कम्मइयदव्वं दादव्वमिदि । सेसं पुव्वं व वत्तव्वं । असंखेज्जेसु दव्व-भाववियप्पेसु पुत्वं व अदिक्कतेसु जहण्णोहिखेत्तमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिज्जदि, तदो खेत्तस्स बिदियवियप्पो होदि । एवमसंखेज्जेसु खेत्तवियप्पेसु गदेसु जहण्णकालो आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिज्जदि, तदो कालस्स बिदियवियप्पो होदि । एवं णेदव्वं जाव देसोहीए उक्कस्संते । एवं के वि आइरिया देसोहीए परूवणं कुणंति । तण्ण घडदे । कुदो ? पुव्ववक्खाणभणिदद्धाणसमाणमेव किमेदस्स समाधान- नहीं, क्योंकि, ऐसा होनेपर [ देशावधिके मध्य विकल्पोंमें जहां अवधिज्ञान ] तैजस शरीर, उसके आगे कार्मण शरीर, उसके आगे तेजोद्रव्य अर्थात् विनसोपचय रहित तैजस वर्गणा, उसके आगे भाषा द्रव्य अर्थात् विस्रसोपचय रहित भाषा वर्गणा [ और उससे आगे मनोवर्गणाको ] जानता है, वहां क्षेत्र असंख्यातं द्वीपसमुद्र और काल असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है ॥ १४ ॥ इस सूत्र रूप गाथाके साथ विरोध होगा। इसलिये कहीं औदारिक शरीर, कहीं तैजस शरीर, कहीं कार्मण शरीर, कहीं तैजस द्रव्य, कहीं भाषा द्रव्य, कहीं मन द्रव्य और कहीं कार्मण द्रव्य देना चाहिये। शेष पूर्वके समान कहना चाहिये । पूर्वके समान असंख्यात द्रव्य और भावके विकल्पोंके वीत जानेपर जब जघन्य अवधिक्षेत्रको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणा किया जाता है तब क्षेत्रका द्वितीय विकल्प होता है। इसी प्रकार असंख्यात क्षेत्रविकल्पोंके वीत जानेपर जब जघन्य कालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित किया जाता है तब कालका द्वितीय विकल्प होता है । इस प्रकार देशावधिके उत्कृष्ट विकल्प तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार कितने ही आचार्य देशावधिका प्ररूपण करते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता है, क्योंकि, यहां हम पूछते हैं कि पूर्व व्याख्यानमें कहे हुए अध्वानके सदृश महाबंध १, पृ. २२. देसोहिमउझभेदे सविस्ससोवचयतेज-कम्मंगे। तेजोभास-मणाणं वग्गणयं केवलं जत्था पस्सदि ओही तत्थ असंखेज्जाओ हवंति दीउवही । वासाणि असंखेज्जा हेति असंखेज्जगुणिदकमा ॥ गो. जी. ३९५-३९६. तेया-कम्मसरीरे तेयादव्वे य भासदव्वे य। बोद्धव्वमसंखेज्जा दीव-समुद्दा य कालो य ।। विशे. भा. ६७६ (नि. ४३). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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