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________________ ४, १, ६६. ] कदिअणियोगहारे भावानुगमो ૨૭ लेस्सामग्गणा ओदइया, कसायाणुविद्धजोगं मोत्तूण लेस्साभावादा | भवियमग्गणा पारिणामि, कम्माणमुदयक्खय खओवस मुवसमेहि भव्वाभव्वत्ताण मणुप्पत्तदो । सम्मत्तमग्गणा सिया ओदइया, दंसणमोहोदएण मिच्छत्तुप्पत्तीदो । सिया उवसमिया, तस्सेव उवसमेण उवसमसम्मत्तप्पत्तिदंसणादो । सिया खओवसमिया' सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं खओवसमेण वेदग- सम्मामिच्छत्ताणमुप्पत्तीए । सिया खइया, दंसणमोहक्खएण खइयसम्मत्तस्सुप्पत्तिदंसणादो । सिया पारिणामिया, दंसणमोहणीयस्स उदय उवसमक्खय - खओवसमेहि विणा साससम्म पत्तदो । सणिमग्गणा सिया खओवसमिया, पोइंदियावरणक्खओवसमेण सण्णित्तप्पत्तीदो । सिया ओदइया, गोइंदियावरणदिएण असण्णित्तुवलंभादो । आहारमग्गणा ओदइया, ओरालियवेव्विय- आहारसरीराणमुदएण आहारित्तस्सुप्पत्तीदो कम्भइयसरीरमेत्तोदएण अणाहारितुप्पत्तीदो च । एवं भावानुगमो समत्तो । लेइया मार्गणा औदयिक है, क्योंकि, कषायानुविद्ध योगको छोड़कर लेश्याका अभाव है, अर्थात् कषायानुरंजित योगप्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं । अत एव वह औदयिक है । भव्य मार्गणा पारिणामिक है, क्योंकि, कर्मोंके उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशमसे भव्यत्व व अभव्यत्वकी उत्पत्ति नहीं होती । सम्यक्त्व मार्गणा कथंचित् औदयिक है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके उदयसे मिध्यात्वकी उत्पत्ति होती है । कथंचित् वह औपशमिक है, क्योंकि, उसीके उपशमसे उपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति देखी जाती है । कथंचित् क्षायोपशमिक है, क्योंकि, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के क्षयोपशमसे वेदकसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्पत्ति होती है । कथंचित् वह क्षायिक है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति देखी जाती है । कथंचित् पारिणामिक है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके विना सासादनसम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती है । संज्ञी मार्गणा कथंचित् क्षायोपशमिक है, क्योंकि, नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशमसे संशित्वकी उत्पत्ति होती है । कथंचित् औदयिक है, क्योंकि, नोइन्द्रियावरणके उदयसे असंशित्व पाया जाता है। आहार मार्गणा औदयिक है, क्योंकि, औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर के उदयसे आहारित्वकी उत्पत्ति होती है और कार्मण शरीर मात्रके उदयसे अनाहारित्वकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ । १ प्रतिषु ' ओवसमियाओ ' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' आहारेत्तस्सुप्पत्ती दो ' इति पाठः । Jain Education International २ प्रतिषु ' आहारदुग्गणा 'इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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