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________________ ११६ छक्खंडागमे वेयणाखंड [., १,६६. वि वत्तव्वं, पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइय-वणप्फदिकाइय-तसकाइयणामकम्मेहिंतो तदुप्पत्तीदो। जोगमग्गणा वि ओदइया, णामकम्मस्स उदीरणोदयजणिदत्तादो। एवं वेद-कसायमग्गणाओ वि वत्तव्वाओ, वेद-कसायाणमुदएण तदुप्पत्तीदो। णाणमग्गणा सिया खइया, णाणावरणक्खएण केवलणाणुप्पत्तीदो। सिया खओवसमिया, मदि-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणावरणक्खओवसमेण मदि-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणुप्पत्तीदो। संजममग्गणा सिया ओदइया, चारित्तावरणोदएण असंजमुप्पत्तीदो। सिया खओवसमिया, चारित्तावरणक्खओवसमेण संजमासंजम-सामाइयच्छेदोवट्ठावण-परिहारसुद्धिसंजमाणमुप्पत्तिदसणादो। सिया खइया, चारित्तावरणक्खएण जहाक्खादसंजमुप्पत्तीदो । सिया उवसमिया, चारित्तमोहोवसमेण उवसंतकसाय-उवसामएस संजमुवलंभादो । दसणमग्गणा सिया खइया, दंसणावरणक्खएण केवलदसणुप्पत्तीदो । सिया खओवसमिया, चक्खु-अचक्खु-ओहिदंसणावरणक्खओवसमेण चक्खु-अचक्खु-ओहिदंसणाणुप्पत्तिदसणादो। चाहिये, क्योंकि, पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और प्रसकायिक नामकर्मोंके उदयसे उन उन भावोंकी उत्पत्ति होती है। __योगमार्गणा भी औदयिक है, क्योंकि, वह नामकर्मकी उदीरणा व उदयसे उत्पन्न होती है। इसी प्रकार वेद व कषाय मार्गणाओंको भी कहना चाहिये, क्योंकि, उनकी उत्पत्ति वेद व कषायके उदयसे होती है। ज्ञानमार्गणा कथंचित् क्षायिक है, क्योंकि, शानावरणके क्षयसे केवलज्ञानकी उत्पत्ति होती है। कथंचित् वह क्षायोपशमिक है, क्योंकि, मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय शानावरणके क्षयोपशमसे क्रमशः मति, श्रुत, अवधि भौर मनःपर्यय शानोंकी उत्पत्ति होती है। संयममार्गणा कथंचित् औदयिक है, क्योंकि, चारित्रावरणके उदयसे असंयम भाव उत्पन्न होता है। कथंचित् वह क्षायोपशमिक है,क्योंकि, चारित्रावरणके क्षयोपशमसे संयमासंयम, सामायिक-छेदोपस्थापना और परिहारशुद्धिसंयमकी उत्पत्ति देखी जाती है। कथंचित् वह क्षायिक है, क्योंकि, चारित्रावरणके क्षयसे यथाख्यात संयम उत्पन्न होता है । कथंचित् वह औपशमिक है, क्योंकि, उपशान्तकषाय व उपशामकोंमें चारित्रमोहनीयके उपशमसे संयम भाव पाया जाता है। दर्शनमार्गणा कथंचित् क्षायिक है, क्योंकि, दर्शनावरणके क्षयसे केवलदर्शनकी उत्पत्ति होती है। कथंचित् क्षायोपशामिक है, क्योंकि, चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शनाबरणके क्षयोपशमसे क्रमशः चक्षु, अचक्षु व अवधि दर्शनकी उत्पत्ति देखी जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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