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________________ २९२) छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ६६. सम्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अणतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टा । पंचिंदियतिरिक्खतिग-तिपदा णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणव्वहियाणि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।। ___मणुस्सतियतिणिपदाणं पंचिंदियतिरिक्खतिगभंगो। मणुसअपज्जत्ता तिष्णिपदा णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । देवगदीए देवेसु तिण्णिपदा णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुज्च जहण्णेण दसवाससहस्साणि', उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि । भवणवासिय-वाणवतर-जोदिसिया तिषिणपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पड्डच्च जहण्णेण ............... है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभव. ग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गल परिवर्तन रूप अनन्त काल तक रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच आदि तीन तीनों पदवाले नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुदभवत्रहण प्रमाण अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम प्रमाण काल तक रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा वे जघन्य से क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्ष से अन्तमुहूर्त काल तक रहते हैं। मनुष्य,मनुष्य पर्याप्त और मनुष्पनियों में तीनों पदोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यच आदि तीन तिर्यंचोंके समान है। मनुष्य अपर्याप्त तीन पदराले नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यात्तवें भाग तक रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं। देवगतिमें देवोंमें तीनों पदवाले नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे दश हजार वर्ष और उत्कर्षसे तेतीस सागरोपम काल तक रहते हैं । भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देव तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्रमशः दश हजार १ काप्रतावतोऽमे ' पलिदोवमस्स अट्ठमभागो' इत्यधिकः पाठः समुपलभ्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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