SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, १, २. कुलसेल-मेरुमहीयर-भवणविमाणट्ठपुढवी-देव-विज्जाहर-सरड-सरिसवादीणि वि पेच्छइ, एदेसिमेगागासे अवट्ठाणाभावादो। ण च तेसिमवयवं पि. जाणदि, अविण्णादे अवयविम्हि एदस्स एसो अवयवो ति णादुमसत्तीदो। जदि अक्कमेण सव्वं घणलोग जाणदि तो सिद्धो णो पक्खो, णिप्पडिवक्खत्तादो। सुहमणिगोदोगाहगाए घणपदरागारेण ठइदाए एगागासवित्थाराणेगोलिं चेव जाणदि त्ति के वि भणंति । णेदं पि घडदे, जद्देहं सुहमणिगोदजहण्णोगाहणा तदेहं जहण्णोहिक्खेत्तमिदि भणतेण गाहासुत्तेण सह विरोहादो। ण चाणेगोलीपरिच्छेदो छदुमत्थाणं विरुद्धो, चक्खिदियणाणेणाणेगोलिंठियपोग्गक्खंधपरिच्छेदुवलंभादो । अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्ज दो वि संखेज्जा । अंगुलमावलियंतो आवलियं चांगुलपुधत्तं ॥५॥ कुलाचल, मेरुपर्वत, भवनविमान, आठ पृथिवियों, देव, विद्याधर, गिरगिट और सरीसृपादिकोंको भी नहीं जान सकेगा, क्योंकि, इनका एक आकाशमें अवस्थान नहीं है। और वह उनके अवयवको भी नहीं जानेगा, क्योंकि, अवयवीके अज्ञात होनेपर “ यह इसका अवयव है' इस प्रकार जाननेकी शक्ति नहीं हो सकती । यदि वह युगपत् सब घनलोकको जानता है तो हमारा पक्ष सिद्ध है, क्योंकि, वह प्रतिपक्षसे रहित है। सूक्ष्म निगोद जीवकी अवगाहनाको घनप्रतराकारसे स्थापित करनेपर एक आकाश विस्तार रूप अनेक श्रेणीको ही जानता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते । हैं । परन्तु यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा होनेपर 'जितनी सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधिका क्षेत्र है', ऐसा कहनेवाले गाथासूत्रके साथ विरोध होगा। और छद्मस्थोंके अनेक श्रेणियोंका ग्रहण विरुद्ध नहीं है, क्योंकि, चक्षु इन्द्रिय जन्य ज्ञानसे अनेक श्रेणियों में स्थित पुद्गलस्कन्धोंका ग्रहण पाया जाता है। देशावधिके उन्नीस काण्डकों से प्रथम काण्डकमें जघन्य क्षेत्र घनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण और जघन्य काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी काण्डकमें उत्कृष्ट क्षेत्र घनांगुलके संख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट काल आवलीके संख्यातवें भाग प्रमाण है। द्वितीय काण्डकमें क्षेत्र घनांगुल प्रमाण और काल कुछ कम आवली प्रमाण है। तृतीय काण्डकमें क्षेत्र घनांगुलपृथक्त्व और काल पूर्ण ‘आवली प्रमाण है॥५॥ .................... १ प्रतिषु 'हि' इति पाठः । . २ गो. जी. ४०४, अंगुलमावलियाणं भागमसंखिज्ज दोपु संखिज्जा। अंगुलमावलियतो आवलिया अंगुलपुहुत्तं ॥ विशे. भा. ६११ (नि. ३२). नं. सू. गा. ५०, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy