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________________ २५६ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ५४. विगतार्थागमने' वा स्वशरीरे शुद्धिवृत्तिविरहे वा । नाध्येयः सिद्धान्तः शिवसुखफलमिच्छता वतिना ॥ ९८ ॥ प्रमितिररत्निशतं स्यादुच्चारविमोक्षणक्षितेरारात् । तनुसलिलमोक्षणेऽपि च पंचाशदरनिरेवातः ॥ ९९ ॥ मानुषशरीरलेशावयवस्याप्यत्र दण्डपंचाशत् । संशोध्या तिरश्चां तदर्द्धमात्रैव भूमिः स्यात् ॥१०० ।। व्यन्तरभेरीताडन-तत्पूजासंकटे कर्षणे वा । संमृक्षण-संमार्जनसमीपचाण्डालबालेषु ॥ १०१ ।। अग्निजलरुधिरदीपे मांसास्थिप्रजनने तु जीवानां । क्षेत्रविशुद्धिर्न स्याद्यथोदितं सर्वभावः ॥ १०२॥ क्षेत्रं संशोध्य पुनः स्वहस्तपादौ विशोध्य शुद्धमनाः । प्राशुकदेशावस्थो गृह्णीयाद् वाचनां पश्चात् ॥ १०३ ॥ आने पर (?) अथवा अपने शरीरके शुद्धिसे रहित होनेपर मोक्षसुखके चाहनेवाले व्रती पुरुषको सिद्धान्तका अध्ययन नहीं करना चाहिये ॥ ९७-९८ ॥ मल छोड़नेकी भूमिसे सौ अरनि प्रमाण दूर, तनुसलिल अर्थात् मूत्रके छोड़नमें भी इस भूमिसे पचास अरनि दूर, मनुष्यशरीरके लेशमात्र अवयवके स्थानसे पचास मनुष, तथा तिर्यंचोंके शरीरसम्बन्धी अवयवके स्थानसे उससे आधी मात्र अर्थात् पच्चीस धनुष प्रमाण भूमिको शुद्ध करना चाहिये ॥ ९९-१०० ॥ व्यन्तरोंके द्वारा भेरीताड़न करनेपर, उनकी पूजाका संकट होनेपर, कर्षणके होनेपर, चाण्डालबालकोंके समीपमें झाड़ा-वुहारी करनेपर; अग्नि, जल व रुधिरकी तीव्रता होनेपर; तथा जीवोंके मांस व हड्डियोंके निकाले जानेपर क्षेत्रकी विशुद्धि नहीं होती जैसा कि सर्वज्ञोंने कहा है ॥ १०१-१०२ ॥ क्षेत्रकी शुद्धि करने के पश्चात् अपने हाथ और पैरोंको शुद्ध करके तदनन्तर विशुद्ध मन युक्त होता हुआ प्राशुक देशमें स्थित होकर वाचनाको ग्रहण करे ॥ १०३ ॥ १ प्रतिषु विनतार्थागमने' इति पाठः । २ प्रतिषु 'संशोध्या' इति पाठः। ३ प्रतिषु ' -देशावस्था ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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