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________________ १, १, ५४.] [२५५ कदिअणियोगहारे वाचणासुद्धिपरूवणा यमपटहरवश्रवणे' रुधिररावेऽगतोऽतिचारे च । दातृष्वशुद्धकायेषु भुक्तवति चापि नाध्येयम् ॥ ९२ ॥ तिलपलल-पृथुक-लाजा-पूपादिस्निग्धसुरभिगंधेषु । भुक्तेषु भोजनेषु च दावाग्निधूमे च नाध्येयम् ॥ ९३ ॥ योजनमण्डलमात्रे सन्यासविधौ महोपवासे च। आवश्यकक्रियायां केशेषु च लुच्यमानेषु ॥ ९४ ॥ सप्तदिनान्यध्ययनं प्रतिषिद्धं स्वर्गगते श्रमणसूरौ । योजनमात्रे दिवसत्रितयं त्वतिदूरतो दिवसम् ॥ ९५ ॥ प्राणिनि च तीव्रदुःखान्म्रियमाणे स्फुरति चातिवेदनया । एकनिवर्तनमात्रे तिर्यक्षु चरत्सु च न पाठ्यम् ॥ ९६ ॥ तावन्मात्रे स्थावरकायक्षयकर्मणि प्रवृत्ते च । क्षेत्राशुद्धौ दूराद् दुग्गंधे वातिकुणपे वा ॥ ९७ ॥ यमपटहका शब्द सुननेपर, अंगसे रक्तस्रावके होनेपर, अतिचारके होनेपर, तथा दाताओंके अशुद्धकाय होते हुए भोजन कर लेनेपर स्वाध्याय नहीं करना चाहिये ॥ ९॥ तिलमोदक, चिउड़ा, लाई और पुआ आदि चिक्कण एवं सुगन्धित भोजनोंके खानेपर तथा दावानलका धुआं होनेपर अध्ययन नहीं करना चाहिये ॥९३ ॥ __ एक योजनके घेरेमें सन्यासविधि, महोपवासविधि, आवश्यकक्रिया एवं केशोंका लौंच होनेपर तथा आचार्यका स्वर्गवास होनेपर सात दिन तक अध्ययनका प्रतिषेध है। उक्त घटनाओंके योजन मात्रमें होनेपर तीन दिन तक तथा अत्यन्त दूर होनेपर एक दिन तक अध्ययन निषिद्ध है ॥ ९४-१५॥ प्राणीके तीव दुःखसे मरणासन्न होनेपर या अत्यन्त वेदनासे तड़फड़ानेपर तथा एक निवर्तन (एक बीघा या गुंठा) मात्रमें तिर्यचोंका संचार होनेपर अध्ययन नहीं करना चाहिये ॥ ९६॥ उतने मात्र स्थावरकाय जीवोंके घात रूप कार्यमें प्रवृत्त होनेपर, क्षेत्रकी अशुद्धि होनेपर, दूरसे दुर्गन्ध आनेपर अथवा अत्यन्त सड़ी गन्धके आनेपर, ठीक अर्थ समझमें न २ प्रतिषु ' श्रवणसूरौ ' इति पाठः । १ प्रतिषु ' स्रवणे' इति पाठः । ३प्रतिषु ' याग्यं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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