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________________ २५४३ छक्खंडागमे वेयणाखंड . [४, १, ५४. बहिं णिक्कलिय पासुवे भूमिपदेसे काओसग्गेण पुव्वाहिमुहो हाइदूण णवगाहापरियट्टणकालेण पुव्वदिसं सोहिय पुणो पदाहिणेण पल्लट्टिय एदेणेव कालेण जम-वरुण-सोमदिसासु सोहिदासु छत्तीसगाहुच्चारणकालेण |३६ असदुस्सासकालेण वा कालसुद्धी समप्पदि १०८।। अवरण्हे वि एवं चेव कालसुद्धी कायवा । णवरि एक्केक्काए दिसाए सत्त-सत्तगाहापरियट्टणेण परिच्छिण्णकाला त्ति णायव्वा । एत्थ सव्वगाहापमाणमट्ठावीस | २८ | चउरासीदिउस्सासा | ८४ | । पुणो अणत्थमिदे दिवायरे खेत्तसुद्धिं कादूण अत्थमिदे कालसुद्धिं पुव्वं व कुज्जा । णवरि एत्थ कालो वीसगाहुच्चारणमेत्तो । २० । सहिउस्सासमेत्तो वा | ६० । अवररत्ते णत्थि वायणा, खेत्तसुद्धिकरणोवायाभावादो । ओहि-मणपज्जवणाणीणं सयलंगसुदधराणमागासट्ठियचारणाणं मेरु-कुलसेलगभट्ठियचारणाणं च अवररत्तियवाचणा वि अस्थि अवगयखेत्तसुद्धीदो । अवगयराग-दोसाहंकारट्ट-रुदज्झाणस्स पंचमहव्वयकलिदस्स तिगुत्तिगुत्तस्स णाण-दसण-चरणादिचारणवड्डिदस्स भिक्खुस्स भावसुद्धी होदि । अत्रोपयोगिश्लोकाः । तद्यथा सन्धिकालमें क्षमा कराकर बाहिर निकल प्राशुक भूमिप्रदेशमें कायोत्सर्गसे पूर्वाभिमुख स्थित होकर नौ गाथाओंके उच्चारणकालसे पूर्व दिशाको शुद्ध करके फिर प्रदक्षिण रूपसे पलटकर इतने ही कालसे दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशाओंको शुद्ध कर लेनेपर छत्तीस ३६ गाथाओंके उच्चारणकालसे अथवा एक सौ आठ १०८ उच्छ्वासकालसे कालशुद्धि समाप्त होती है । अपरालकालमें भी इसी प्रकार ही कालशुद्धि करना चाहिये। विशेष इतना है कि इस समयकी कालशुद्धि एक एक दिशामें सात सात गाथाओंके उच्चारण कालसे सीमित है, ऐसा जानना चाहिये। यहां सब गाथाओंका प्रमाण अट्ठाईस २८ अथवा उच्छ्वासोंका प्रमाण चौरासी ८४ है । पश्चात् सूर्य के अस्त होनेसे पहिले क्षेत्रशुद्धि करके सूर्यके अस्त हो जाने पर पूर्वके समान कालशुद्धि करना चाहिये । विशेष इतना है कि यहां काल बीस २० गाथाओंके उच्चारण प्रमाण अथवा साठ ६० उच्छवास प्रमाण है। अपररात्र अर्थात् रात्रिके पिछले भागमें वाचना नहीं है, क्योंकि, उस समय क्षेत्रशुद्धि करनेका कोई उपाय नहीं है। अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, समस्त अंगश्रुतके धारक, आकाशस्थित चारण तथा मेरु व कुलाचलोंके मध्य में स्थित चारण ऋषियोंके अपररात्रिक वाचना भी है, क्योंकि, वे क्षेत्रशुद्धिसे रहित हैं, अर्थात् भूमिपर न रहनेसे उन्हें क्षेत्रशुद्धि करने की आवश्यकता नहीं होती । राग, द्वेष, अहंकार, आर्त व रौद्र ध्यानसे रहित; पांच महावतोंसे युक्त, तीन गुप्तियोंसे रक्षित; तथा शान, दर्शन व चारित्र आदि आचारसे वृद्धिको प्राप्त भिक्षुके भावशुद्धि होती है । यहां उपयोगी श्लोक इस प्रकार हैं १ णव-सत्त-पंचगाहापरिमाणं दिसिविभागसोधीए । पुवण्ई अवरण्हे पदोसकाले य सज्झाए । मूला. ५-७६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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