SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, १, ५१.] कदिअणियोगदारे वाचणामुद्धिपरूवणा । २५३ वाचनोपगतं' परप्रत्यायनसमर्थ इति यावत् । एत्थ वक्खाणंतेहि सुतेहि वि दव्व-खेत्त-कालभावसुद्धीहि वक्खाण-पढणवावारो कायव्यो । तत्र ज्वर-कुक्षि-शिरोरोग-दुःस्वप्न-रुधिर-विट्मूत्र-लेपातीसार-पूयस्रावादीनां शरीरे अभावो द्रव्यशुद्धिः । व्याख्यातृव्यावस्थितप्रदेशात् चतसृष्वपि दिक्ष्वष्टाविंशतिसहस्रायतासु विण्मूत्रास्थि-केश-नख-त्वगाद्यभावः षष्ठातीतवाचनातः आरात्पंचेन्द्रियशरीरा स्थि-त्वग्मांसासूक्संबंधाभावश्च क्षेऋशुद्धिः । विद्युदिन्द्रधनुर्ग्रहोपरागाकालवृष्ट्यभ्रगर्जन-जीमूतव्रातप्रच्छाद-दिग्दाह धूमिकापात-सन्यास-महोपवास-नन्दीश्वर-जिनमहिमाघभावः कालशुद्धिः । ___ अत्र कालशुद्धिकरणविधानमभिधास्ये । तं जहा- पच्छिमरत्तिसज्झायं खमाविय यह है कि जो दूसरोंको शान करानेके लिये समर्थ है वह वाचनोपगत है। यहां व्याख्यान करनेवालों और सुननेवालोंको भी द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धिसे व्याख्यान करने या पढ़नेमें प्रवृत्ति करना चाहिये । उनमें ज्वर, कुक्षिरोग, शिरोरोग, कुत्सित स्वप्न, रुधिर, विष्ठा, मूत्र, लेप, अतीसार और पीवका बहना, इत्यादिकोंका शरीरमें न रहना द्रव्यशुद्धि कही जाती है। व्याख्यातासे अधिष्ठित प्रदेशसे चारों ही दिशाओं में अट्ठाईस हजार [धनुष] प्रमाण क्षेत्रमें विष्ठा, मूत्र, हड्डी, केश, नख और चमड़े आदिके अभावको; तथा छह अतीत वाचनाओंसे (?) समीपमें [या दुरी तक] पंचेन्द्रिय जीवके शरीर सम्बन्धी गीली हड्डी, चमड़ा, मांस और रुधिरके सम्बन्धके अभावको क्षेत्रशुद्धि कहते हैं। विजली, इन्द्र-धनुष, सूर्य-चन्द्रका ग्रहण, अकालवृष्टि, मेघगर्जन, मेघोंके समूहसे आच्छादित दिशायें, दिशादाह, धूमिकापात (कुहरा ), सन्यास, महोपवास, नन्दीश्वरमहिमा और जिनमहिमा, इत्यादिके अभावको कालशुद्धि कहते हैं। ___ यहां कालशुद्धि करनेके विधानको कहते हैं । वह इस प्रकार है- पश्चिम रात्रिके १ गुरुप्रदत्तया वाचनया उपगतं प्राप्तं गुरुवाचनोपगतम्, न तु कणीघाटकेन शिक्षितं न वा पुस्तकात् । स्वयमेवाधीतमिति भावः : अनु. टीका सू. १३. २ अ-काप्रत्योः ‘शहिःस्थि-', आप्रतौ ' शदिद्रिास्थि-' इति पाठः। ३ तिरिपंचिंदिय दव्वे खेते सहिहत्थ पोग्गलाइन्नं । तिकुरत्थ महंतेगा नंगरे बाहिं तु गामस्स ॥xxx क्षेत्रे क्षेत्रतः षष्टिहस्ताभ्यन्तरे परिहरणीयम्, न परतः। xxx (टीका) प्रवचनसारोद्धार गाथा १४६४. ४ प्रतिषु ' -ग्राहोप- ' इति पाठः। ५ दिसदहि-उक्कपडणे विज्ज चक्कासणिंदधणुगं च । दुग्गंध-सज्झ-दुविण-चंद-ग्गह-सूर-राहुजुझं च ॥ कलहादिधूमकेदू धरणीकंपं च अब्भगज्जं च । इच्चेवमाइबहुया सज्झाए वज्जिदा दोसा ॥ मूला. ५, ७७-७८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy