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२५२] छक्खंडागमे धेयणाखंड
[४, १, ५४. भावागमम्मि वुडओ गिलाणो व्व सणि सणिं संचरदि सो तारिससंसकारजुत्तो पुरिसो तब्भावागमो च स्थित्वा वृत्तः द्विदं णाम । नैसर्यवृत्तिर्जितम् , जेण संसकारेण पुरिसो भावागमम्मि अक्खलिओ संचरइ तेण संजुत्तो पुरिसो तब्भावागमो च जिदमिदि भण्णदे । यत्र यत्र प्रश्नः क्रियते तत्र तत्र आशुतमवृत्तिः परिचितम् , क्रमेणोत्क्रमणानुभयेन च भावागमाम्भोधौ मत्स्यवचटुलतमवृत्ति वो भावागमश्च परिचितम् । शिष्याध्यापनं वाचना। सा चतुर्विधा नंदा भद्रा जया सौम्या चेति । पूर्वपक्षीकृतपरदर्शनानि निराकृत्य स्वपक्षस्थापिका व्याख्या नन्दा । युक्तिभिः प्रत्यवस्थाय पूर्वीपरविरोधपरिहारेण तंत्रस्थाशेषार्थव्याख्या भद्रा । पूर्वापरविरोधपरिहारेण विना तंत्रार्थकथनं जया । क्वचित् क्वचित् स्खलितवृत्तेर्व्याख्या सौम्या । एतासां वाचनानामुपगतं
नाम स्थित आगम है । अर्थात् जो पुरुष भाव आगममें वृद्ध व व्याधिपीडित मनुष्यके समान धीरे धीरे संचार करता है वह उस प्रकारके संस्कारसे युक्त पुरुष और वह भावागम भी स्थित होकर प्रवृत्ति करनेसे अर्थात् रुक रुक कर चलनेसे स्थित कहलाता है। स्वाभाविक प्रवृत्तिका नाम जित है। अर्थात् जिस संस्कारसे पुरुष भावागममें अस्खलित रूपसे संचार करता है उससे युक्त पुरुष और वह भावागम भी 'जित ' इस प्रकार कहा जाता है। जिस जिस विषयमें प्रश्न किया जाता है उस उसमें शीघ्रतापूर्ण प्रवृत्तिका नाम परिचित है । अर्थात् क्रमसे, अक्रमसे और अनुभय रूपसे भावागम रूपी समुद्र में मछलीके समान अत्यन्त चंचलतापूर्ण प्रवृत्ति करनेवाला जीव और भावागम भी परिचित कहा जाता है। शिष्योंको पढ़ानेका नाम वाचना है। वह चार प्रकार है-नन्दा,भद्रा, जया और सौम्या । अन्य दर्शनोंको पूर्वपक्ष करके उनका निराकरण करते हुए अपने पक्षको स्थापित करनेवाली व्याख्या नन्दा कहलाती है । युक्तियों द्वारा समाधान करके पूर्वापर विरोधका परिहार करते हुए सिद्धान्तमें स्थित समस्त पदार्थों की व्याख्याका नाम भद्रा है। पूर्वापर विरोधके परिहारके विना सिद्धान्तके अर्थोका कथन करना जया वाचना कहलाती है। कहीं कहीं स्खलनपूर्ण वृत्तिसे जो व्याख्या की जाती है वह सौम्या वाचना कही जाती है । इन चार प्रकारकी वाचनाओंको प्राप्त वाचनोपगत कहलाता है । अभिप्राय
१ प्रतिषु — बुदओ' इति पाठः । २ कापतो 'च' इति पाठः ।
३ तवादित आरभ्य पठनक्रियया यावदन्तं नीतं तच्छिक्षितमुच्यते । तदेवाविस्मरणतश्चेतसि स्थित स्थितत्वात् स्थितमप्रच्युतमित्यर्थः । अनु. टीका सू. १३.
४ परावर्तनं कुर्वतः परेण वा क्वचितू पृष्टस्य यच्छीघमागच्छति तज्जितम् । अनु. टीका सू. १३.
५ परि समन्तात् सर्वप्रकारैर्जितं परिजतम्, परावर्त्तनं कुर्वतो यत् क्रमेणोत्क्रमेण वा समागपतीत्यर्थः । भन. टीका स. १३.
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