SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ., १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपवणा [ २५१ भसंखेज्जमुणा, आहारसरीरमुट्ठाविय सव्वजहण्णकालेण मूलसरीरं पविसिय सम्वचिरेण काढण आहारसरीरं णिल्लेवंतस्स चरिमसमयअणिल्लेविदस्स परिणामजोगागदएगसमयपबद्धणिसेगग्गहणादो । उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । कुदो ? गुणिदकमेण आहारदव्वसंचयं काऊण मूलसरीरं पविठ्ठपढमसमए वट्टमाणस्स उक्कस्सपरिणामजोगागददिवड्डमेत्तसमयपबद्ध. ग्गहणादो । उक्कस्सिया संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । कुदो ? मूलसरीरं पविट्ठपढमसमए गलिददव्वस्स आहारसरीरमुट्ठावेंतस्ल चरिमसमए उवलंभादो । तेजइयम्स जहणिया संपादण-परिसादणकदी थोवा, छावट्ठिसागरोवमाणि सुहुमेइंदिएसु खविदकम्मंसियलक्खणेणच्छिदस्स पुणो एयंताणुवड्डीए बंधादो णिज्जराए अहिययरप्पदेसे दिवड्डमेत्तसमयपबद्धग्गहणादो । जहणिया परिसादणकदी विसेसाहिया । केचियमेत्तेण ? सुहुमेइंदिएसु खविदकम्मंसियलक्खणेण छावहिसागरोवमाणि परिममिय जहण्ण. दव्वं काऊण ततो उव्वट्टिय मणुस्सेसुप्पज्जिय अहवस्सेसु कयसंचयमेत्तेण । केवली होदण गुणा है। उससे जघन्य परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, इसमें आहार शरीरको उत्पन्न कराकर और सर्वजघन्य काल द्वारा मूल शरीरमें प्रवेश करके जो सर्वचिर काल द्वारा आहारक शरीरको निलेपित करते हुए चरम समयमें अनिलेपित रहता है उस जीवके परिणामयोगसे आये हुए एक समयप्रबद्धके निषेकका ग्रहण किया है। उससे उत्कृष्ट परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, इसमें गुणित क्रमसे आहार द्रव्यका संचय करके मूल शरीरमें प्रविष्ट होनेके प्रथम समयमें वर्तमान प्रमत्तसंयत जीवके उत्कृष्ट परिणामयोगसे आये हुए डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध मात्र द्रव्यका ग्रहण किया है। उससे उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति विशेष अधिक है, क्योंकि, मूल शरीरमें प्रविष्ट होनेके प्रथम समयमें जो द्रव्य जीर्ण होता है वह आहारकशरीरको उत्पन्न करनेवालेके अन्तिम समयमें पाया जाता है। तैजसशरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति स्तोक है, क्योंकि जो छयासठ सागरोपम काल तक सूक्ष्म एकेन्द्रियों में क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे रहा है उस जविके एकान्तानुवृद्धिसे हुए बन्धकी अपेक्षा निर्जराके अधिकतर प्रदेशमें डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध मात्र लिये गये हैं। उससे जघन्य परिशातनकृति विशेष अधिक है। कितने मात्रसे अधिक है? सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे छयासठ सागरोपम काल तक परिभ्रमण करके और इस द्वारा द्रव्यको जघन्य करके वहांसे निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर आठ वर्षों में जितना संचय होगा उतने प्रमाणसे अधिक है। शंका-केवली होकर कुछ कम पूर्वकोटि काल तक विहार करनेवाले जीवके १प्रविष-पडे मिग-'पति पाठः।... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy