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________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगद्दारे करण कदिपरूवणा [ ३६९ मिच्छाइट्टि असण्णीणं वत्तव्वं । विभंगणाणीणमित्थिवेदभंगो । णवरि ओरालियसंघादणं णत्थि । एवं मणपज्जवणाणि संजदासंजदाणं । आभिणिबोहिय - सुद-ओहिणाणीण पुरिसवेदभंगा । संजदाणं मणुभंगो | णवरि ओरालियसंघादणं णत्थि । सामाइय-छेदोवडावणसुद्धिसंजदाणं पुरिसवेदभंगे। । णवरि ओरालियसंघादणं णत्थि । परिहार - सुहुमसां पराइयसुद्धिसंजदेसु अप्पप्पणो दोपदा लोगस्स असंखेज्जदिभागे । चक्खुदंसणीणं आभिणिबोहियभंगो । एवं ते उ-पम्मलेस्सिय-वेदगसम्मादिट्ठि-सण्णीणं वत्तव्वं । एवं ओहिदंसणीणं । अचक्खुदंसणीणं कायजोगिभंगा । णवरि ओरालियपरिसादणं लोगस्स असंखेज्जदिभागे । सुक्कलेस्सिएस मणुसभंगो | णवरि तेजा - कम्मइयपरिसादणं णत्थि । भवसिद्धियाणं ओघो । सम्मादिट्ठि - खइयसम्मादिट्ठीणं मणुसभंगो । उवसमसम्भादिट्ठि- सम्मामिच्छादिट्ठीणं विभंगभंगो । सासणसम्मादिद्वीणं पंचिंदियतिरिक्खभंग । आहारसु कायजोगिभंगो। णवरि ओरालियपरिसादणं लोगस्स असंखेज्जदिभागे । अणा जीवोंके कहना चाहिये । विभंगज्ञानियोंकी प्ररूपणा स्त्रीवेदियोंके समान है। विशेष इतना है कि उनके औदारिकशरीरकी संघातनकृति नहीं होती। इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी और संयतासंयत जीवोंके कहना चाहिये । आभिनिबोधिक श्रुत और अवधिज्ञानियोंकी प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है । संयत जीवोंकी प्ररूपणा मनुष्योंके समान है । विशेष इतना है कि उनके औदारिकशरीरकी संघातनकृति नहीं होती । सामायिक व छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतों की प्ररूपणा पुरुषवेदियों के समान है । विशेष इतना है कि उनके औदारिकशरीरकी संघातनकृति नहीं होती । परिहारशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीवोंमें अपने अपने दो पद युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । चक्षुदंर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है । इसी प्रकार तेज व पद्म लेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि और संज्ञी जीवके कहना चाहिये । इसी प्रकार अवधिदर्शनी जीवोंके कहना चाहिये । अचक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा काययोगियोंके समान है । विशेष इतना है कि इनमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । शुक्ललेश्यावाले जीवोंकी प्ररूपणा मनुष्योंके समान है । विशेष इतना है कि उनके तेजस और कार्मण शरीरकी परिशातनकृति नहीं होती । भव्यसिद्धिक जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों की प्ररूपणा मनुष्योंके समान है । उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंको प्ररूपणा विभंगज्ञानियोंके समान है । सासादनसम्यदृष्टियों की प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके समान है । आहारक जीवोंकी प्ररूपणा काय - योगियोंके समान है । विशेष इतना है कि इनमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । अनाहारक जीवोंमें औदारिकशरीरकी क. क. ४७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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