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________________ १, १, ४५.] कदिअणियोगदारे णयपरूवणी । १७१ निष्पत्त्यभावतः पाकस्य साकल्येनोत्पत्तरभावप्रसंगात् । एवं द्वितीयादिक्षणेष्वपि पाकनिष्पत्तिवक्तव्या । ततः पच्यमानः पक्व इति सिद्धम् , नान्यथा; समयस्य त्रैविध्यप्रसंगात् । स एवौदनः पक्वः स्यात्पच्यमान इति चोच्यते, सुविशद-सुस्विन्नौदने पक्तुः पक्वाभिप्रायात् । तावन्मात्रक्रियाफलनिष्पत्त्युपरमापेक्षया स एव पक्वः ओदनः स्यादुपरतपाक इति कथ्यते । एवं क्रियमाणकृत- भुज्यमानभुक्त-बध्यमानबद्ध-सिद्धयत्सिद्धादयो योज्याः । 'तथा यदैव धान्यानि मिमीते तदैव प्रस्था, प्रतिष्ठन्त्यस्मिन्निति प्रस्थव्यपदेशात् । न कुम्भकारोऽस्ति । कथम् ? उच्यतेशिवकादिपर्यायं करोति न तस्य तद्व्यपदेश, शिवकादीनां कुम्भव्यपदेशाभावात् । नापि कुम्भपर्यायं करोति, स्वावयवेभ्य एव तस्य निष्पत्तेः । नोभयत एकस्योत्पत्तिः, युगपदेकत्र होनेसे पूर्णतया पाककी उत्पत्तिके अभावका प्रसंग आवेगा। इसी प्रकार द्वितीयादि क्षणों में भी पाककी उत्पत्ति कहना चाहिये। इसीलिये पच्यमान ओदन कुछ पके हुए अंशकी अपेक्षा पक्व है, यह सिद्ध होता है, क्योंकि, ऐसा न माननेसे समयके तीन प्रकार माननेका प्रसंग आवेगा। वही पका हुआ ओदन कथंचित् 'पच्यमान' ऐसा कहा जाता है, क्योंकि, विशद रूपसे पूर्णतया पके हुए ओदनमें [जो अभी सिद्ध नहीं हुआ है ] पाचकका 'पक्व' से अभिप्राय है। उतने मात्र अर्थात् कुछ ओदनांशमें पचन क्रियाके फलकी उत्पत्तिके विराम होनेकी अपेक्षा वही ओदन उपरतपाक अर्थात् कथंचित् पका हुआ कहा जाता है। इसी प्रकार क्रियमाण-कत, भुज्यमान भुक्त, बध्यमान-बद्ध और सिद्धयत्सिद्ध इत्यादि ऋजुसूत्र नयके विषय जानना चाहिये । तथा जब धान्योको मापता है तभी इस नयकी दृष्टि में प्रस्थ ( अनाज नापनेका पात्रविशेष ) हो सकता है, क्योंकि, जिसमें धान्यादि स्थित रहते हैं उसे निरुक्तिके अनुसार प्रस्थ कहा जाता है । इस नयकी दृष्टि में कुम्भकार संज्ञा भी नहीं बनती। कैसे ? ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि जो शिवक आदि पर्यायको करता है उसकी कुम्भकार संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि, शिवक-स्थासादिका कुम्भ नाम नहीं है। कुम्भ पर्यायको भी वह नहीं करता, क्योंकि, उसकी उत्पत्ति अपने अवयवोंसे ही होती है। और दोसे एककी उत्पत्ति सम्भव २ प्रतिषु । यद्येव ' इति पाठः । १ त. स. १, ३३, ७. जयध. १, पृ. २२४. ३ प्रतिषु । तदेव' ति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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