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________________ ३२६ ] graat arraडे चेव, छट्ठादिसरीराभावादो । एदेसिं मूलकरणाणं कदी कज्जं संघादणादी तं मूलकरणकदी णाम, क्रियते कृतिरिति व्युत्पत्तेः; अधवा मूलकरणमेव कृतिः; क्रियते अनया इति व्युत्पत्तेः । कथं संघादणादणं सरीरतं एस दोसो, तेर्सि तत्तो भेदाभावादो । एवं मूलकरणकदीए सरूवत्तं भेदं च परूविय तत्थ एक्केक्किस्से भेदपरूवणट्ठमुत्तरसुतं भणदि f जा सा ओरालिय- वे उव्विय-आहारसरीरमूलकरणकदी णाम सा तिविहा- संघादणकदी परिसादणकदी संघादण-परिसा दणकदी चेदि । सा सव्वा ओरालिय- वे उच्चिय- आहारसरीरमूलकरणकदी नाम ॥६९॥ तत्थ अप्पिदसरीरपरमाणूण णिज्जराए विणा जो संचओ सा संघादणकदी णाम । ४, १,६९. भेद से पांच प्रकारकी ही है, क्योंकि, छठे आदि शरीर नहीं पाये जाते है । इन मूले करणोंकी कृति अर्थात् संघातनादि कार्य मूलकरणकृति कही जाती है, क्योंकि, जो किया जाता है वह कृति है, ऐसी कृति शब्द की व्युत्पत्ति है; अथवा मूलकरण ही कृति है, क्योंकि, जिसके द्वारा किया जाता है वह कृति है, ऐसी कृति शब्द की व्युत्पत्ति है । शंका -- संघातन आदिके शरीरपना कैसे सम्भव है ? समाधान- -यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वे शरीर से अभिन्न हैं । विशेषार्थ — कृतिका अर्थ कार्य है। पांच शरीर संघातन आदि कार्योंके प्रति अत्यन्त साधक होते हैं, इसलिये इन्हें करण कहा है। और ये शेष कार्यों की प्रवृत्तिके मूल हैं इसलिये इन्हें मूलकरण कहा है। इनसे संघातन आदि कार्य होते हैं, इसलिये ये मूलकरणकृति कहलाते हैं । संघातन आदि कार्योंको पांचों शरीरोंसे पृथक् मान कर यह अर्थ किया गया है । यदि संघातन आदि कार्योंको पांचों शरीरोंसे अभिन्न माना जाता है तो स्वयं पांच शरीर मूलकरणकृति ठहरते हैं । यह उक्त कथनका तात्पर्य है । - Jain Education International इस प्रकार मूलकरणकृतिके स्वरूप और भेदकी प्ररूपणा करके उनमें एक एकके भेद बतलाने के लिये उत्तर सूत्र कहते हैं औदारिकशरीरमूलकरणकृति, वैक्रियिकशरीरमूलकरणकृति और आहारकशरीरमूलकरणकृति तीन तीन प्रकारकी है- संघातनकृति, परिशातनकृति और संघातन-परिशातनकृति । वह सब औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरमूलकरणकृति है ॥ ६९ ॥ उनमें से विवक्षित शरीर के परमाणुओंका निर्जराके विना जो संचय होता है उसे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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