SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४, १, ६९. ] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [ ३२७ तेसिं चेव अप्पिदसरीरपोग्गलक्खंधाणं संचएण विणा जा णिज्जरा सा परिसादणकदी णाम । अप्पिदसरीरस्स पोग्गलक्खंधाणमागम- णिज्जराओ संवादण - परिसादणकदी णाम । तत्थ तिरिक्ख-मणुस्से सुप्पण्णपढमसमए ओरालियसरीरस्स संघादणकदी चेव, तत्थ तक्खंधाणं णिज्जराभावादो । बिदियसमय पहुडि संघादण - परिसादणकदी होदि, बिदियादिसमएसु अभवसिद्धिएहि अनंत गुणाणं सिद्धेहिंतो अनंतगुणहीणाणं ओरालियसरीरक्खं घाणमागमणणिज्जराणमुवलंभादो । तिरिक्ख - मणुस्सेहि उत्तरसरीरे उट्ठाविदे ओरालियपरिसादणकदी होदि, तत्थोरालियसरी रक्खंधाणमागमाभावादो । देव- रइएसुप्पण्णपढमसमए वेउब्वियरीरस्स संघादणकदी, तत्थ तक्खंधाणं णिज्जराभावादो । बिदियादिसमएस संवादण - परिसादणकदी, तत्थ तक्खंधाणमागमण- णिज्जराणं दंसणादो । उत्तरसरीरमुडाविय मूलसरीरं पविट्ठस्स परिसादणकदी, तत्थ तक्खंधाणमागमाभावाद | Fi तिरिक्ख मणुस्से विविहगुणिद्धिविरहिदसरीरेसु वेउब्वियसरीरसंभवो ? णत्थि संघातनकृति कहते हैं। उन्हीं विवक्षित शरीर के पुद्गलस्कन्धोंकी संचयके बिना जो निर्जरा होती है वह परिशातन कृति कहलाती है । तथा विवक्षित शरीरके पुद्गलस्कन्धोंका आगमन और निर्जराका एक साथ होना संघातन परिशातनकृति कही जाती है । उनमें से तिर्यच और मनुष्योंके उत्पन्न होने के प्रथम समय में औदारिक शरीरकी संघातनकृति ही होती है, क्योंकि, उस समय उक्त शरीर के स्कन्धोंकी निर्जरा नहीं पायी जाती । द्वितीय समय से लेकर आगे के समयोंमें औदारिक शरीरकी संघातन-परिशातनकृति होती है, क्योंकि, द्वितीयादिक समयों में अभव्यसिद्धिकोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंसे अनन्तगुणे हीन औदारिक शरीर के स्कन्धोंका आगमन और निर्जरा दोनों पाये जाते हैं । तथा तिर्यच और मनुष्यों द्वारा उत्तर शरीर के उत्पन्न करनेपर औदारिक शरीरकी परिशातनकृति होती है, क्योंकि, उस समय औदारिक शरीरके स्कन्धोंका आगमन नहीं होता । देव व नारकियोंके उत्पन्न होनेके प्रथम समय में वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति होती है, क्योंकि, उस समय वैक्कियिक शरीरके स्कन्धौकी निर्जरा नहीं होती । द्वितीयादिक समय में उसकी संघातन परिशातनकृति होती है, क्योंकि, उस समय उक्त शरीरके स्कन्धोंका आगमन और निर्जरा दोनों एक साथ देखे जाते हैं। तथा उत्तर शरीरका उत्पादन कर मूल शरीर में प्रविष्ट हुए देव व नारकी के मूलशरीर की परिशातनकृति होती है, क्योंकि, उस समय उक्त शरीर के स्कन्धौका आगमन नहीं होता । शंका - विविध प्रकार के गुण व ऋद्धिसे रहित शरीरवाले तिर्यच व मनुष्यों के वैकिशरीर कैसे सम्भव है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy