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________________ १, १, १६.] कदिअणियोगदारे अंतराणुगमो इत्थि-पुरिस-णqसयवेदाणं तिण्णिपदाणं अंतर केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, एगसमओ, अंतोमुहुत्तं; उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, [सागरोवमसदपुधत्तं] । अवगदवेदतिण्णं पदाणमंतर केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूर्ण । ___चत्तारिकसायकदिसंचिदाणं अंतरं एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अकसायाणं अवगदवेदभंगो। णाणाणुवादेण मदि-सुदअण्णाणि-आभिणिवोहिय-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणितिण्णिपदाणमंतर' केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियई देसूर्ण । विभंगणाणीणं णारगभंगो, आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियहतरेण सामण्णादो । केवलणाणीणं णाणेगजीव पडुच्च णत्थि अंतरं । सव्वसंजदाणं संजदासंजदाणमसंजदाणं च मदिणाणिभंगो । णवरि सुहुमसांपराइएसु स्त्री, पुरुष और नपुंसकवेदी तीनों पदवालोंका अन्तर कितने काल तक होता है? उक्त तीनों वेदवालोंका अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्रमशः क्षुद्रभवग्रहण, एक समय और अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कर्षसे स्त्री व पुरुषवेदियोंका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्त काल [ तथा नपुंसकवेदियोंका सागरोपमशतपृथक्त्व काल ] होता है। अपगतवेदी तीन पदोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन काल तक अन्तर होता है। चार कषायवाले कृतिसंचितोंका अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त होता है। अकषायी जीवोंकी अन्तरप्ररूपणा अपगतवेदियोंके समान है। ज्ञानमार्गणानुसार मातअज्ञानी. श्रुताशानी, आभिनिबोधिकहानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानियों में तीन पदोंका अन्तर कितने काल तक होता है? जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन काल उक्त जीवोंका अन्तर होता है। विभंगशानियोंकी प्ररूपणा नारकियोंके समान है, क्योंकि, आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अन्तरसे इनकी नारकियोंके साथ समानता है। केवलशानियोका नाना व एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। सब संयत, संयतासंयत और असंयत जीवोंकी प्ररूपणा मतिज्ञानियोंके समान है । विशेषता इतनी है कि सूक्ष्मसाम्परायिकसंयतोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक १ प्रतिषु ' गाणीपदाणमन्तरं ' इति पाठः। १ था-कापलोः 'देपूर्ण ' पदं नोपलभ्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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