SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४, १, १४.] कदिअणियोगद्दारे आईरियपरंपरा [१३१ समासो बस्ससदं |१००।५।। तदो भद्दबाहुभडारए सग्गं गदे संते भरहक्खत्तेम्मि अत्थमिओ सुदणाण-संपुण्णमियंको, भरहखेत्तमावूरियमण्णाणंधयारेण । णवरि एक्कारसण्णमंगाणं विज्जाणुपवादपेरंतदिट्ठिवादस्स य धारओ विसाहाइरिओ जादो। णवरि उवरिमचत्तारि वि पुव्वाणि वोच्छिण्णाणि तदेगदेसघारणादो । पुणो तं विगलसुदणाणं पोटिल्ल-खत्तिय-जय-णागसिद्धत्थ-धिदिसेण-विजय-बुद्धिल्ल-गंगंदेव-धम्मसेणाइरियपरंपराए तेयासीदिवरिससयाइमागंतूण वोच्छिण्णं | १८३ । ११ ।। तदो धम्मसेणभडारए सग्गं गदे णढे दिढिवादुज्जोए एक्कारसण्णमंगाणं दिविवादेगदेसस्स य धारयो णक्खत्ताइरियो जादो। तदो तमेक्कारसंग सुदणाणं जयपाल-पांडु-धुवसेण-कंसो त्ति आइरियपरंपराए वीसुत्तरबेसदवासाइमागंतूण वोच्छिण्णं । | २२० । ५।। तदो कंसाइरिए सग्गं गदे वोच्छिण्णे एक्कारसंगुज्जोवे सुभद्दाइरियो आयारंगस्स सेसंग-पुव्वाणमेगदेसस्स य धारओ जादो। तदो तमायारंग पि जसभद्द-जसबाहुलोहाइरियपरंपराए अट्ठारहोत्तरवरिससयमांगतूण वोच्छिण्णं | ११८ । ४।। सव्वकालसमासो तेयासीदीए अहियछस्सदमेत्तो' |६८३ ।। पुणो एत्थ सत्तमासाहियसत्तहत्तरिवासेसु | ७, श्रुतकेवलियों के कालका योग सो वर्ष है [१०० वर्ष में ५श्रु. के.] । पश्चात् भद्रबाहु भट्टारकके स्वर्गको प्राप्त होने पर भरतक्षेत्रमें श्रुतज्ञान रूपी पूर्ण चन्द्र अस्तमित हो गया। अब भरतक्षेत्र अज्ञान अन्धकारसे परिपूर्ण हुआ। विशेष इतना है कि उस समय ग्यारह अंगों और विद्यानुवाद पर्यन्त दृष्टिवाद अंगके भी धारक विशाखाचार्य हुए । विशेषता यह है कि इसके आगेके चार पूर्व उनका एक देश धारण करनेसे व्युच्छिन्न हो गये। पुनः वह विकल थतज्ञान प्रोष्टिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, प्रतिषण, विजय, वृद्धिल्ल. गंगदेव और धर्मसेन, इन आचार्योंकी परम्परासे एक सौ तेरासी वर्ष आकर व्युच्छिन्न हो गया [१८३ वर्षमें ११ एकादशांग-दशपूर्वधर] । पश्चात् धर्मसेन भट्टारकके स्वर्गको प्राप्त होनेपर दृष्टिवाद-प्रकाशके नष्ट हो जानेसे ग्यारह अंगों और दृष्टिवादके एक देशके धारक नक्षत्राचार्य हुए । तदनन्तर वह एकादशांग श्रुतज्ञान जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस, इन आचार्योंकी परम्परासे दो सौ बीस वर्ष आकर व्युच्छिन्न हो गया [ २२० वर्षमें ५ एकादशांगधर] । तत्पश्चात् कंसाचार्यके स्वर्गको प्राप्त होनेपर ग्यारह अंग रूप प्रकाशके व्युच्छिन्न हो जानेपर सुभद्राचार्य आचारांगके और शेष अंगों एवं पूर्वोके एक देशके धारक हुए। तत्पश्चात् वह आचारांग भी यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्यकी परम्परासे एक सौ अठारह वर्ष आकार व्युच्छिन्न हो गया [११८ वर्ष में ४ आचारांगधर ] । इस सब कालका योग छह सौ तेरासी वर्ष होता है [ ६२ + १०० + १८३ + २२० + ११८ = ६८३ ] । पुनः इसमेंसे सात मास अधिक सतत्तर वर्षोंको १ नबध. १, पृ. ८५-८६ ह. पु. १, ५६-६५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy