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________________ ८२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, १८. .. औत्पत्तिकी पैनयिकी कर्मजा पारिणामिकी चेति चतुर्विधा प्रज्ञा । तत्थ जम्मंतरे चउविहणिम्मलमदिबलेण विणएणावहारिददुबालसंगस्स देवेसुप्पज्जिय मणुस्सेसु अविण?संसकारणुप्पण्णस्स एत्थ भवम्मि पढण-सुणग-पुच्छणवावारविरहियस्स पण्णा अउप्पत्तिया णाम । उत्तं च विणएण सुदमधीदं' किह वि पमादेण होदि विस्सरिदं । ...तमुवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आहवदि ॥ २२ ॥ एसो उप्पत्तिपण्णसमणो छम्मासोपवासगिलाणो वि तब्बुद्धिमाहप्पजाणावणटुं पुच्छावावदचौदसपुव्विस्स वि उत्तरबाहओ। विणएण दुवालसंगाई पढंतस्सुप्पण्णा वेणइया णाम, परोवदेसेण जादपण्णा वा। तवच्छरणबलेण गुरूवदेसणिरपेक्खेणुप्पण्णपण्णा कम्मजा णाम, ओसहसेवाबलणुप्पण्णपण्णा वा । सग-सगजादिविसेसेण समुप्पण्णपण्णा पारिणामिया णाम । औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी इस प्रकार प्रज्ञा चार प्रकार है । उनमें जन्मान्तरमें चार प्रकारको निर्मल बुद्धिके बलसे विनयपूर्वक बारह अंगोंका अवधारण करके देवोंमें उत्पन्न होकर पश्चात् अविनष्ट संस्कारके साथ मनुष्योंमें उत्पन्न होनेपर इस भवमें पढ़ने, सुनने व पूछने आदिके व्यापारसे रहित जीवकी प्रज्ञा औत्पत्तिकी कहलाती है । कहा भी है विनयसे अधीत श्रुतज्ञान यदि किसी प्रकार प्रमादसे विस्मृत हो जाता है तो उसे [औत्पत्तिकी प्रज्ञा ] पर भवमें उपस्थित करती है और केवलज्ञानको बुलाती है ॥ २२ ॥ यह औत्पत्तिप्रज्ञाश्रमण छह मासके उपवाससे कृश होता हुआ भी उस बुद्धिके माहात्म्यको प्रकट करनेके लिये पूछने रूप क्रियामें प्रवृत्त हुए चौदहपूर्वीको भी उत्तर देता है। विनयसे बारह अंगोंको पढ़नेवाले के उत्पन्न हुई बुद्धिका नाम वैनयिक है । अथवा परोपदेशसे उत्पन्न बुद्धि भी वैनयिक कहलाती है। गुरुके उपदेशके विना तपश्चरणके बलसे उत्पन्न बुद्धि कर्मजा है। अथवा औषधसेवाके बलसे उत्पन्न बुद्धि भी कर्मजा है । अपनी अपनी जातिविशेषसे उत्पन्न बुद्धि पारिणामिका कही जाती है। १ प्रतिषु' -मदीदं ' इति पाठः। २ पगडीए सुदणाणावरणाए वीरियंतरायाए। उक्कस्सक्खउवसमे उप्पज्जइ पण्णसमणद्धी ॥ पण्णासमणद्धिजुदो चोदसपुव्वीसु विसयसहुमत्तं । सव्वं हि सुदं जाणदि अकअज्झअणो बिणियमेण ॥ भासंति तस्स बुद्धी पण्णासमणाद्ध सा च च उभेदा। अउपत्तिअ-परिणामिय वइणइकी कम्मजा णेया ॥ अउपत्तिकी भवंतरसुदविणएणं समुल्लसिदभावा। णिय-णियजादिविसेसे उप्पण्णा पारिणामिकी णामा ॥ वइणइकी विणएणं उम्पज्जदि बारसंगसुदजोग्गं । उवदेसेण विणा तवविसेसलाहेण कम्मजा तुरिमा ॥ ति.प. ४,१०१७-१०२१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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