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________________ १७८] छक्खंडागने वेयणाखंडं [४, १, ४५. सीदिति भूतार्थे भविष्यत्प्रयोगः। साधनव्यभिचारः - ग्राममधिशेते इति । पुरुषव्यभिचारःएहि, मन्ये रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि, यातस्ते पितेति । उपग्रहव्यभिचारः -- रमते विरमति, तिष्ठति संतिष्ठते, विशति निविशते; इत्येवमादयो व्यभिचारा न युक्ताः, अन्यार्थस्य अन्याथन सम्बन्धाभावात् । तस्माद्यथालिगं यथासंख्यं यथासाधनादि च न्याय्यमभिधानम् । एवं शब्दनयस्वरूपमभिहितम् । प्रयोग किया गया है । [ इसीलिये उक्त दोनों कालव्यभिचारके उदाहरण हैं । ] एक कारकके स्थानमें दूसरे कारकका प्रयोग करना साधनव्यभिचार है । जैसे'ग्राममधिशेते' अर्थात् गांवमें सोता है। यहां 'ग्रामे' अधिकरण कारकके स्थानमें 'ग्रामम् ' ऐसे कर्मकारकका प्रयोग किया गया है, अतः यह साधनव्यभिचार है। एक पुरुषके स्थानमें दूसरे पुरुषका प्रयोग करने का नाम पुरुषव्यभिचार है। जैसे'एहि, मन्ये रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि, यातस्ते पिता' अर्थात् आओ, तुम समझते हो कि मैं रथसे जाऊंगा, पर तुम नहीं जाओगे, तुम्हारे पिता चले गये। यहां ' मन्यसे' मध्यम पुरुषके स्थानमें ' मन्ये' इस प्रकार उत्तम पुरुषका प्रयोग और ' यास्यामि' इस उत्तम पुरुषके स्थानमें ' यास्यसि' ऐसे मध्यम पुरुपका प्रयोग किया गया है। अत एव यह पुरुषव्यभिचार है। उपसर्गके सम्बन्धसे परस्मैपदके स्थानमें आत्मनेपद और आत्मनेपदके स्थानमें परस्मैपदका प्रयोग करना उपग्रहव्यभिचार है । जैसे- 'रमते' ऐसे आत्मनेपदके स्थानमें वि उपसर्गके सम्बन्धसे 'विरमति' इस प्रकार परस्मैपदका प्रयोग: 'तिष्ठति' परस्मैपदके स्थानमें सम् उपसर्गके संयोगसे ' संतिष्ठते' ऐसे आत्मनेपदका प्रयोग; और 'विशति' परस्मैपदके स्थानमें नि उपसर्गके योगसे ' निविशते' इस प्रकार आत्मनेपदका प्रयोग। उपर्युक्त लिंगादिव्यभिचारके अतिरिक्त और भी जो व्यभिचार हैं वे सब शब्दनयकी दृष्टिमें उचित नहीं हैं, क्योंकि, अन्य अर्थवाले शब्दका अन्य अर्थवाले शब्दके साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता। इस कारण जैसा लिंग हो, जैसा वचन हो और जैसा साधन आदि हो वैसा व्यभिचारसे रहित प्रयोग करना चाहिये । इस प्रकार शब्दनयका स्वरूप कहा गया है। १ हासे मन्योक्तौ युस्मन्मन्येऽस्मत्त्वेकम् । मन्योक्ती- मन्यवाचि, हासे- प्रहासे, गम्यमाने युष्मद् भवतिः मन्ये मन्यतेस्त्वस्मदेकं च। पुहि, मन्ये रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि, यातस्ते पिता। शब्दा. चं. १, २, १८२. २ ष. खं. पु. १, पृ. ८७, जयध. १, पृ. २३६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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