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., १, १५.] कदिवणियोगदारे सुत्तावरणं अहियविदो होदि । एवं कम्मपयडिपाहुडस्स णिक्खेव-णएहि अवयारो कदो।
पमाण-पमेयाणं दोण्णं पि एत्थाणुगमो, एक्काणुगमस्स इदराणुगमाविणाभावादो । पुवाणुपुन्वीए कम्मपयडिपाहुडं चउत्थं । पच्छाणुपुवीए सत्तारसमं । जत्थ-तत्थाणुपुबीए अवत्तव्यं । कम्मपयडिपरूवणादो कम्मपयडिपाहुडमिदि गुणणामं । अक्खर-पद-संघाद-पडिवत्ति-अणिओगद्दारेहि संखेज्जमणंतं वा, अत्थाणंतियादो । वत्तव्वं ससमओ, परसमयपरूवणाभावादो । अत्याधियारो चदुवीसदिविधा 'कदि वेदणाए पस्से कम्मे पयडीसु बंधणे णिबंधणे पक्कमे उवक्कमे उदए मोक्खे पुण संकमे लेस्सा लेस्साकम्मे लेस्सापरिणामे तत्थेव सादमसादे दीहे-रहस्से भवधारणीए तत्थ पोग्गलअत्ता णिवत्तमणिधतं णिकाचिदमणिकाचिदं कम्महिदि-पच्छिमक्खंधे अप्पाबहुगं च सव्वत्थ ' इदि सुत्तणिबद्धो।।
जीव अधिकृत है। इस प्रकार निक्षेप और नयसे कर्मप्रकृतिप्राभृतके अवतारकी प्ररूपणा
प्रमाण और प्रमेय दोनोंका ही यहां अनुगम है, क्योंकि, एक अनुगमका दूसरे अनुगमके साथ अविनाभाव है। पूर्वानुपूर्वीसे कर्मप्रकृतिप्राभृत चतुर्थ है। पश्चादानुपूर्वीसे घह सत्तरहवां है । यत्र-तत्रानुपूर्वीसे अवक्तव्य है । कर्मप्रकृतियोंकी प्ररूपणा करनेसे कर्मप्रकृतिप्राभृत यह गुणनाम है । अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वारोंकी अपेक्षा यह संख्यात अथवा अर्थकी अनन्तताकी अपेक्षा अनन्त है। वक्तव्य स्वसमय है, क्योंकि, इसमें परसमयकी प्ररूपणाका अभाव है।
कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति, बन्धन, निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, संक्रम, लेश्या, लेश्याकर्म, लेश्यापरिणाम, वहां ही सात-असात, दीर्घ-हस्व, भवधारणीय, पुद्गलात्म, निधत्त-अनिधत्त, निकाचित-अनिकाचित, कर्मस्थिति, पश्चिमस्कन्ध और सवंत्र अल्पबहत्व, इस प्रकार सत्रनिवद्ध अर्थाधिकार चौबीस प्रकार है।
१वस्तुनः पंचमस्यात्र चतुर्थे प्राभृते पुनः । कर्मप्रकृति संझे तु योगद्वाराण्यभूनि तु॥ कृतिश्च वेदना स्पर्शः कर्माख्यं च पुनः परम् । प्रकृतिश्च तथैवान्यद् बन्धनं च निबन्धनम् ॥ प्रक्रमोपक्रमो प्रोक्तावुदयो मोक्ष एव च। संक्रमश्च तथा लेश्या लेश्याकर्म च वर्णितम् ॥ लेश्यायाः परिणामश्च सातासातं तथैव च। दीर्ध-हस्त्रमीप तथा भवधारणमेव च ।। पुद्गलात्माभिधानं च तन्निधत्तानिधत्तकम् । सनिकाचितमित्यन्यदनिकाचितसंयुतम् ।। कर्मस्थितिकमित्युक्तं पश्चिमं स्कन्ध एव च । समस्तविषयाधीना बोध्याल्पबहुता तथा ॥ ह. पु. १०, ८१-८६. पंचमवत्युचउत्थपाहुडयस्साणुयोगणामाणि। कियवयणे तहेव फसण-कम्मपयडिक तह । बंधण-णिबंधण-पाक्कमाथुक्कममहन्भुदय-मोक्खा । संकम लेस्सा च तहा लेस्साए कम्म-परिणामा || सादमसादं दिग्धं हस्सं भवं धारणीयसणं च । पुरुपोग्गलप्पणामं णिहत्त-अणि हत्तणामाणि ॥ सणिकाचिदमणिकाचिदमह कम्मद्विदि-पश्छिमक्खंधा। अप्पनहसंच वहा तदाराणं च चउवीसं ॥ अं.प. २, ४४-४७.
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