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________________ ४५२ छक्खंडागमे वेयणाखरं [१, १, ७५. ओदइयादिपंचभाउवलक्खियणोआगमदव्वाणं सेसकदीसु अंतब्भावादो । सा सव्वा भावकदी णाम ॥ ७५ ॥ कधमेक्किस्से भावकदीए बहुत्तसंभवो ? ण, कदिपाहुडजाणएसु तत्थुवजुत्तजीवाणं बहुत्तदंसणादो। एदासिं कदीणं काए कदीए पयदं ? गणणकदीए पयदं ॥७६॥ गणणपरूवणा किमट्ठमेत्थ कीरदे ? गणणाए विणा सेसाणियोगद्दारपरूवणाणुवत्तीदो। उत्तं च (जह चिय मोराण सिहा णायाणं लंछणं व सत्थाणं । मुक्खारूढं गणियं तत्थव्भासं तदो कुज्जा ॥ १३३ ॥ एवं कदी त्ति सत्तममणियोगद्दारं । प्रसिद्धसिद्धान्तगभस्तिमाली समस्तवैयाकरणाधिराजः । गुणाकरस्तार्किकचक्रवर्ती प्रवादिसिंहो वरवीरसेनः ॥ समाधान नहीं की गई, क्योंकि, औदयिक आदि पांच भावोंसे उपलक्षित नोआगमद्रव्योंका शेष कृतियों में अन्तर्भाव हो जाता है। वह सब भावकृति है ॥ ७५ ॥ शंका-एक भावकृतिमें बहुत्व कैसे सम्भव है ? समाधान नहीं, क्योंकि, कृतिप्राभृतके जानकारों से उसमें उपयोग युक्त जीक बहुत देखे जाते हैं। इन कृतियोंमें कौनसी कृति प्रकृत है ? गणनकृति प्रकृत है ॥ ७६ ॥ शंका- यहां गणनाकी प्ररूपणा किसलिये की जाती है ? समाधान- चूंकि गणनाके विना शेष अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा नहीं बन सकती है, अतः उसकी प्ररूपणा की जाती है। कहा भी है जिस प्रकार मयूरोंकी शिख' उनका मुख्यतासे रूढ लक्षण है, उसी प्रकार न्याय शास्त्रोंका मुख्य लक्षण गणित है । अत एवं इसका अभ्यास करना चाहिये ॥ १३३ ॥ इस प्रकार कृतिअनुयोगद्वार समाप्त हुआ। १ प्रतिषु 'पद्धारूट' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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