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________________ १, १, ७४.] कदिअणियोगद्दारे भावकदिपरूवणा [४५१ भावेण वा उवलद्धमूलकरणववएसाणं करणत्तादो । उत्तरकरणकदी अणेयविहा त्ति पइज्जा । असि-वासियादीणमुवसंपदसणिज्झे इदि साहणमेयमण्णहाणुववत्तिगन्भत्तादो । द्रव्यमुपसंपद्यते आश्रीयते एभिरिति उपसंपदानि कार्याणि, तेषां सान्निध्य उपसंपदसान्निध्यम् । तस्मादसि-वासिपरशु-कुडारि-चक्र-दण्ड-वेम-नालिका-शलाका-मृत्तिका-सूत्रोदकादीनामुपसंपदसान्निध्यादुत्तरकरणकृतिरनेकविधा । न कार्यसान्निध्यं करणभेदस्यागमकम् , तद्विशेषाश्रयणे तदेकत्वानुपपत्तेः । जे चामण्णे एवमादिया सा सव्वा उत्तरकरणकदी णाम ॥७३॥ 'जे च अमी अण्णे ' एदेण करणाणमियत्तावहारणप्पडिसेहो कदो। सा सव्वा उत्तरकरणकदी णाम । जा सा भावकदी णाम सा उवजुत्तो पाहुडजाणगो ॥७४॥ एत्थ पाहुडसहो कदीए विसेसिदव्वा, पाहुडसामण्णण अहियाराभावादो। तदो कदिपाहुडजाणओ उवजुत्तो भावकदि त्ति सिद्धं । णोआगमभावकदी किण्ण परूविदा ? ण, मूलकरण संशाको प्राप्त हुए पांच शरीरोंके चूंकि वे मृत्तिका आदि करण हैं, अतः वे उत्तर करण कहे जाते हैं। 'उत्तरकरणकृति अनेक प्रकारकी है ' यह प्रतिज्ञा है । ' असि, वासि आदिकोंकी कार्यों में समीपता होनेपर', यह साधन है; क्योंकि, उसके गर्भमें अन्यथानुपपत्ति निहित है अर्थात् उक्त साधनोंके विना कार्यकी सिद्धि नहीं हो सकती। जो द्रव्यका आश्रय करते हैं वे उपसंपद अर्थात् कार्य कहलाते हैं, उनकी समीपता उपसंपदसानिध्य है । इसलिये असि, वासि, परशु, कुदारी, चक्र, दण्ड,वेम, नालिका, शलाका, मृत्तिका, सूत्र और उदक आदि कार्योकी समीपतासे उत्तरकरणकृति कहलाते हैं। यह उत्तरकरणकृति अनेक प्रकारकी है। कार्यसान्निध्य करणभेदका अगमक नहीं है, अर्थात् गमक ही है। क्योंकि, करणभेदका आश्रय करनेपर उसका एकत्व नहीं बन सकता। इसी प्रकार और भी जो ये अन्य करण हैं वे सब उत्तरकरणकृति कहलाते हैं ॥७३॥ ‘और जो ये अन्य हैं ' इससे करणों की संख्याके निश्चयका निषेध किया गया है। वह सब उत्तरकरणकृति है । प्राभृतका जानकर जो उपयोग युक्त जीव है वह सब भावकरणकृति है ॥ ७४ ॥ यहां सूत्रमें आये हुए प्राभृत पदको कृति विशेषणसे विशेषित करना चाहिये; क्यॉकि, यहां प्राभृत सामान्यका अधिकार नहीं है। इस कारण कृतिप्राभृतका जानकार उपयोग सहित जीव भावकृति है, यह सिद्ध हुआ। शंका-यहां नोआगमभावकृतिकी प्ररूपणा क्यों नहीं की? १ प्रतिषु — भाषकरणकदी' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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