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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ४५. पुवाणुपुबीए पुष्वगयं चउत्थं, पच्छाणुपुबीए बिदियं । जत्थ-तत्थाणुपुवीए अवत्तव्वं, फ्टमं विदियं तदियं चउत्थं पंचमं वा त्ति णियमाभावादो । पुव्वेहि कयं पुव्वगयमिदि पिप्पत्तीदो गुणणामं । अक्खर-पद-संघाय-पडिवत्ति-अणियोगद्दारेहि संखेज्ज । अत्थदो अणंत, पमेयाणतियादो। वत्तव्वं ससमयो, ण परसमयो; तस्सेत्थपरूवणाभावादो । अत्याहियारो चोइसविहो । तं जहा- उत्पादपूर्व अग्रायणं वीर्यप्रवादं अस्ति-नास्तिप्रवाद ज्ञानप्रवादं सत्यप्रवादं आत्मप्रवादं कर्मप्रवादं प्रत्याख्याननामधेयं विद्यानुप्रवादं कल्याणनामधेयं प्राणावायं क्रियाविशालं लोकविन्दुसारमिति (पुद्गल-काल-जीवादीनां यदा यत्र यथा च पर्यायेणोसादा वर्ण्यन्ते तदुत्पादपूर्व एककोटिपदम् १०००००००। अग्राणि चांगानां स्वसमयविषयश्च यत्राख्यापितस्तदग्रायणं षण्णवतिशतसहस्रपदम् ९६००००० । छद्मस्थनां केवलिनां वीर्य सुरेन्द्र-दैत्याधिपानां वीर्यर्द्धयो नरेन्द्र-चक्रधर-बलदेवानां वीर्यलाभो द्रव्याणां आत्म-पराभय पूर्वानुपूर्वीसे पूर्वगत चतुर्थ और पश्चादानुपूर्वीसे वह द्वितीय है। यत्र-तत्रानु. पूर्वीसे वह अवक्तव्य है, क्योंकि प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ अथवा पंचम है, ऐसे नियमका अभाव है। पूर्वोसे जो कृत है वह पूर्वकृत है, इस प्रकार सिद्ध होनेसे पूर्वकृत शब्द गुणनाम है । अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वारोंकी अपेक्षा वह संख्यात है। अर्थकी अपेक्षा वह अनन्त है, क्योंकि, उसके प्रमेय अनन्त हैं। वक्तव्य स्वसमय है। परसमय वक्तव्य नहीं है, क्योंकि, यहां उसकी प्ररूपणाका अभाव है। अर्थाधिकार चौदह प्रकार है। वह इस प्रकारसे- उत्पादपूर्व, अप्रायण, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान नामक, विद्यानुप्रवाद, कल्याण नामक, प्राणावाद, क्रियाविशाल और लोकविन्दुसार । जिसमें पदगल, काल और जीव आदिकोंके जब, जहांपर और जिस प्रकारसे पर्याय रूपसे उत्पादोंका वर्णन किया जाता है वह उत्पादपूर्व कहलाता है। इसमें एक करोड़ पद हैं १०००००००। जिसमें अंगोंके अग्र अर्थात् मुख्य पदार्थोंका तथा स्वसमयके विषयका वर्णन किया गया हो वह अप्रायणपूर्व है। वह छ्यानबै लाख पदोसे संयुक्त है ९६०००००। जिसमें छद्मस्थ व केवलियोंके वीर्यका; सुरेन्द्र व दैत्येन्द्रोंके वीर्य एवं ऋद्धिका; राजा, चक्रवर्ती और बलदेवोंके वीर्यलाभका; द्रव्योंका आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीर्य, १५. ख. पु. १, पृ. ११४. काल-पुद्गल जीवादीनां यदा यत्र यथा च पर्यायेणोत्पादो वर्ण्यते तदुपादपूर्वम् । त. रा. १, २०, १२. जमुप्पायपुव्वं तमुप्पाय-वय-धुवभावाणं कमाकमसरूवाणं णाणाणयविसयाण बण्णणं कुणइ । जयध. १, पृ. १३९. अ. प. २-३८. २.खं. पु. १, पृ. ११५. क्रियावादादीनां प्रक्रिया अग्रायणी चांगादीनां स्वसमवायविषयश्च यत्र च्यापितस्तदप्रायणम् । त. रा. १,२०, ११. अग्गेणियं णाम पुवं सत्तसयसुणय-दुण्णयाणं छदव-णवपयत्थपंचत्थियाणं च घण्णणं कुणइ । जयध. १, पृ. १४०. अं. प. २, ३९-४१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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