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________________ १, १, १.] कदिअणियोगदारे करणकदिपरूवणा जहणिया संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, बादरवाउपज्जत्तस्स सव्वलहुमुत्तरसरीरं विउन्विदस्स जहण्णजोगिस्स विउव्वणद्धाए बिदियसमए वट्टमाणस्स देसूणदोसमयपबद्धग्गहणादो । परिसादणकदी जहणिया असंखेज्जगुणा । कुदो ? बादरवाउकाइयपज्जत्तयस्स जहण्णजोगेण उत्तरसरीरं विउव्विदस्स मूलसरीरं पविसिय दीहेण कालेण णिल्लेवयंतस्स अणिल्लेविदचरिमसमए एगचरिमणिसेगस्स गहणादो । ण च असंखेज्जगुणत्तमसिद्धं, चरिमणिसगागमणणिमित्तसंखेज्जावलियाहि जोगगुणगोरे ओवट्टिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जमागुवलंभादो। उक्कस्सिया संघादणकदी असंखेजगुणा । कुदो १ वेमाणियदेवस्स पुधत्तत्तेण सव्वमहंतरूवं विउव्वमाणस्स पढमसमयपंचिंदियउक्कस्सपरिणामजोगेगसमयपत्रद्धग्गहणादो । उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, मणुस्सस्स पज्जत्तयस्स सण्णिपंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तस्स वा पुवकोडाउअस्स पढमसमयविउवियप्पहुडि उक्कस्सजोगिस्स पुन्बुक्कस्सविउव्वणद्धस्स मूलसरीरपवेसपढमसमयादवड्डमेत्तसमयपबद्धग्गहणादो। पुधत्तेण विउब्विय मूलसरीरं पविट्ठपढमसमए हिददेवस्स उक्कस्सिया परिसादणकदी .................. वैक्रियिक शरीरकी जधन्य संघातनकृतिसे उसकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, इसमें सर्वलघु कालमें उत्तर शरीरकी विक्रियाको प्राप्त हुए, जघन्य योगसे संयुक्त, तथा विक्रियाकालके द्वितीय समयमें वर्तमान ऐसे बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवके कुछ कम दो समयप्रबद्धोंका ग्रहण किया है। उससे जघन्य परिशासन कृति असंख्यातनगुणी है, क्योंकि, इसमें जघन्य योगसे उत्तर शरीरकी विक्रियाको प्राप्त हुए तथा मूल शरीरमें प्रवेश करके दीर्घ काल तक निर्जरा करनेवाले ऐसे बादर वायकायिक पर्याप्त जीवके अनिलेपित चरम समयमें एक अन्तिम निषेकका ग्रहण किया है। यदि कहा जाय कि यह कृति वैक्रियिक शरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृतिसे असंख्यातगुणी है. यह बात असिद्ध है; सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, अन्तिम निषेकके आनेमें निमित्तभूत संख्यात आवलियोंसे योगगुणकारको अपवर्तित करनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग उपलब्ध होता है। उससे उत्कृष्ट संघातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, इसमें सबसे महान् रूपकी पृथक् विक्रिया करनेवाले वैमानिक देवके प्रथम समय में पंचेन्द्रियके उत्कृष्ट परिणामयोगसे ग्रहण किये गये एक समयप्रबद्धका ग्रहण किया है। उससे उत्कृष्ट परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, पूर्वकोटि आयुवाले, विक्रिया करनेके प्रथम समयसे लेकर उत्कृष्ट योगसे संयुक्त और पहलेसे उत्कृष्ट विक्रियाकालसे सहित ऐसे मनुष्य पर्याप्तके अथवा संशी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तके मूल शरीर में प्रवेश करमेके प्रथम समयमें डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध मात्र द्रन्थका ग्रहण किया है। शंका-पृथक् विक्रिया करके मूल शरीर में प्रविष्ट होनेके प्रथम समयमें स्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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