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________________ १०] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४,१,८. एत्थ जिणसद्दो णुवट्टदे, तेण णमो पदाणुसारीणं जिणाणमिदि वत्तव्वं । पमाणमज्झिमादिपदेहि एत्थ पओजणाभावादो बीजपदस्स गहणं । पदमनुसरति अनुकुरुते इति पदानुसारी बुद्धिः । बीजबुद्धीए बीजपदमवगंतूण एत्थ इदं एदेसिमक्खराणं लिंग होदि ण होदि ति ईहिदूण सयलसुदक्खर-पदाइमवगच्छंती' पदाणुसारी । तेहि पदेहितो समुप्पज्जमाणं णाणं सुदणाणं ण अक्खर-पदविसयं, तेसिमक्खर-पदाणं बीजपदंतब्भावादों । सा च पदाणुसारी अणु-पदि-तदुभयसारिभेदेण तिविहो । बीजपदादो हेट्ठिमपदाइं चेव बीजपदट्ठियलिंगेण जाणंती पदिसारी णाम । उवरिमाणि चेव जाणंती अणुसारी णाम । दोपासट्ठियपदाइं णियमेण विणा णियमेण वा जाणती उभयसारी णाम । एदेसिं पदाणुसारिजिणाणं णिसुढिर्य • यहां जिन शब्दकी अनुवृत्ति आती है, इसलिये पदानुसारी ऋद्धि धारक जिनोंको ममस्कार हो, ऐसा कहना चाहिये। प्रमाण और मध्यम आदि पदोंसे यहां प्रयोजन न होने के कारण बीजपदका ग्रहण है। पदका जो अनुसरण या अनुकरण करती है वह पदानुसारी बुद्धि है। बीजबुद्धि से बीजपदको जानकर यहां यह इन अक्षरोका लिंग होता है और इनका नहीं, इस प्रकार विचार कर समस्त श्रुतके अक्षर-पदोंको जाननेवाली पदानुसारी बुद्धि है। उन पदोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान श्रुतशान है, वह अक्षर-पदविषयक नहीं है क्योंकि, उन अक्षर-पदोंका बीजपदमें अन्तर्भाव है। वह पदानुसारी बुद्धि अनुसारी, प्रतिसारी और तदुभयसारीके भेदसे तीन प्रकार है । जो बीजपदसे अधस्तन पदोंको ही बीजपदस्थित लिंगसे जानती है वह प्रतिसारी बुद्धि है। जो उपरिम पदोंको ही जानती है वह अनुसारी बुद्धि है। दोनों पार्श्वस्थ पदोको नियमसे अथवा विना नियमके भी जो जानती है वह उभयसारी बुद्धि है । इन पदानुसारी जिनोंको नत होकर १ अप्रतो अवगच्छंतीति ' इति पाठः। २ अप्रती · जाणतीति ' इति पाठः । ३ बुद्धी वियवखणाणं पदाणुसारी स्वेदि तिविहप्पा । अणुसारी पडिसारी जहत्थणामा उमयसारी॥ आदि-अंवसाण-मज्झे गुरूवदेसेण एक्कबीजपदं। गेणिय उवारमगंथं जा गिण्हदि सा मदी हु अणुसारी ॥ आदिअवसाण-मझे गुरूवदेसेण एक्कबीजपदं । गेण्हिय हेहिमगंथं बुज्झदि जा सा च पडिसारी ॥ णियमेण अणियमेण य जगवं एगस्स बीजसद्दस्स । उवरिम-हेहिमगंथं जा बुज्झइ उमयसारी सा ॥ ति. प. ४, ९८०-९८३. पदानु. सारित्वं त्रेधा- अनुश्रोतः प्रति श्रोतः उभयथा चेति । एकं पदस्यार्थ परतः उपश्रुयादी अन्ते च मध्ये वा शेष धार्थावधारणं पदानुसारित्वम् ॥ त. रा. ३,३६, २. जो सुत्पएण बहुं सुयमणुधावह पयाणुसारी सो। प्रवचनसारोद्धार १५०३. ४ प्रतिषु 'निमुदिय' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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