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________________ ४, १, ७१. ] कदिअणियोगद्दारे करणक दिपरूवणा सामित्तं किमहं दिण्णं ? परिणामजोगेहि संचिदपोग्गलक्खंघग्गलणङ्कं । कम्मइयस्स उक्कस्स परिसादणकदी कस्स ? जो जीवो तीससागरोवमकोडाकोडीओ बेहि सागरोवमसहस्सेहि य ऊणियाओ बादरेसु अच्छिदो, तम्हि पज्जत्तापज्जत्तयाई भवगहणाई करेदि, तत्थ बहुआई पज्जत्तयाई, [ थोवाई अपज्जत्तयाई ], दीहाओ पज्जत्तद्धाओ, रहस्साओ अपज्जत्तद्धाओ, उक्कस्सेण जोगेण आहारिदो, उक्कस्सियाए वड्डीए वड्ढिदो, बहुसो बहुसो उक्कस्साई जोगट्ठाणाई गदो, जहण्णाई ण गदो; संकिलेस बहुसो जाओ, बहुसो तप्पाओग्गउक्कस्स संकिलेसो, विसुज्झतो, तप्पा ओग्गजहण्ण विसोहिसहियो, हेट्ठिल्लडिदिट्ठाणेहि णिसेयस्स जहण्णपदमुवरिल्लद्विदिट्ठाणेहि णिसेयस्स उक्कस्सपदं, तदो उव्वट्टिदो बादरतसेसु उववण्णो । तसेसु किं सुहुमा संति ? ण, तम्हि पज्जत्तापज्जत्ता इदि भेदोवलंभादो बादरवयणेण तसपज्जत्ताणं गहणं । तत्थ वि उवरिल्ले हेट्ठिल्लट्ठदिट्ठाणेहि णिसेयस्स उक्कस्सपदं, सम्मत्तं शंका - एकान्तानुवृद्धिसे स्वामित्व किसलिये दिया है ? समाधान - परिणामयोगोंसे संचित पुद्गलस्कन्धोंके गलानेके लिये एकान्तानुवृद्धिसे स्वामित्व कहा है । कार्मण शरीरकी उत्कृष्ट परिशातनकृति किसके होती है ? जो जीव दो हजार सागरोपमोंसे हीन तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम काल तक बादर जीवोंमें रहा है, वहां रहते हुए जो पर्याप्त व अपर्याप्त भवग्रहणोंको करता है, वहां पर्याप्त भव अधिक और अपर्याप्त भव थोड़े होते हैं, पर्याप्त भवका काल दीर्घ और अपर्याप्त भवोंका काल हस्व होता है, जो उत्कृष्ट योगसे आहारको ग्रहण करता है, उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता है, जो बहुत बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त होता है, जघन्य योगस्थानोंको बहुत बहुत बार नहीं प्राप्त होता है, संक्लेशको बहुत बार प्राप्त होता है, इस प्रकार बहुत बार उसके योग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे युक्त होकर विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ उसके योग्य जघन्य विशुद्धि से सहित होता है; अधस्तन स्थितिस्थानोंके निषेकका जघन्य पद व उपरिम स्थितिस्थानों के निषेकका उत्कृष्ट पद करता है, पश्चात् उस पर्यायसे निकलकर बादर सोंमें उत्पन्न होता है । शंका- क्या सोंमें सूक्ष्म होते हैं ? [ १४१ समाधान- नहीं होते। हां उनमें पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद अवश्य होते हैं। इसलिये यहां ' बादर ' इस वचनसे त्रस पर्याप्तोंका ग्रहण करना चाहिये । वहां भी जो ऊपरके स्थितिस्थानमें अधस्तन स्थितिस्थानोंकी अपेक्षा निषेकका १ प्रतिषु ' संते ' इति पाठः । Jain Education International -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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