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________________ ३१६] छखंडागमे वेयणाखंड सुगमं । उक्कस्सिया संघादण-परिसादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स आरणच्चददेवस्स बावीससागरोवमाउअस्स । जेण पढमसमयतन्भवत्थप्पडुडि उक्कस्सएण जोगेण आहारिदं, उक्कस्सि याए वड्डीए वड्डिद, हेडिट्ठल्लीणं ट्ठिदीणं णिसेयस्स जहण्णपदं, उवरिल्लीणं द्विदीणं णिसेयस्स उक्कस्स पदमप्पाओ भासद्धाओ, अप्पाओ मणजोगद्धाओ, रहस्साओ भासद्धाओ, रहस्साओ मणजोद्धाओ, अंत मुहुत्ते जीविदावसेसे ण विउव्विदो, अंत मुहुत्ते जीविदा बसेसे जो गट्ठाणा - मुवरिल्ले अद्धे अंत मुहुत्तमच्छिदो, चरिमे जीवगुणहाणिट्ठागंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो, चरिम दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदो, तस्स चरिमसमए तन्भवत्थस्स उक्कस्सा तदुभयकदी । तव्वदिरित्ता अणुक्कस्सा 1 सुगमं । [ ४, १, ७१. वेव्वियस्स जहणिया संघादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स णेरइयस्स असणपच्छायदस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स पढमसमय आहारयस्स तप्पा ओग्गजहणजेोगस्स जहणिया यह कथन सुगम 1 वैक्रियिकशरीरकी उत्कृष्ट संघातन परिशातनकृति किसके होती है ? जो कोई आरणअच्युत कल्पवासी देव बाईस सागरोपम आयुवाला है । जिसने उस भवमें स्थित होने के प्रथम समय से लेकर उत्कृष्ट योगके द्वारा आहार ग्रहण किया है, जो उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धिको प्राप्त हुआ है, अधस्तन स्थितियों के निषेकका जघन्य पर करता है, उपरिम स्थितियों के निषेकका उत्कृष्ट पद करता है, जिसका भाषाकाल अल है, मनोयोग काल अल्प है, भाषाकाल ह्रस्व है, मनोयोगकाल ह्रस्व है, अन्तर्मुहूर्त मात्र जीवितके शेष रहने पर जो विक्रियाको नहीं प्राप्त हुआ है, अन्तर्मुहूर्त मात्र जीवितके शेष होनेपर जो योगस्थानों के उपरम भाग में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है, चरम जीवगुणहानिस्थानके मध्य में आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक रहता है, तथा जो चरम व द्विचरम समय में उत्कृष्ट योगको प्राप्त है, उस भवमें स्थित उसके चरम समय में उत्कृष्ट तदुभय कृति होती है । इससे विपरीत अनुत्कृष्ट कृति होती है । यह कथन सुगम है । Jain Education International वैक्रियिक शरीरकी जघन्य संघातन कृति जीव असंशी पर्यायसे वापिस आकर नारकी हुआ है, प्रथम समय में आहारक हुआ है, तथा उसके योग्य जघन्य योगसे संयुक्त है; उसके किसके होती है ? जो कोई नारकी प्रथम समय में तद्भवस्थ हुआ है, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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