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________________ ५८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ७. दिसाविसयसुदणाणजणणक्खमबीजबुद्धिमहिट्ठिदजीवे बीजबुद्धिविरुद्धाणमणु-पडिसारीणमवठाणविरोहादो। णोभयसारी वि, हेट्ठिमसुदणाणुप्पत्तीए कारण होदूणुवरिमंसुदणाणुप्पत्तीए कारणं होदि ति णियमपडिबद्धबीजबुद्धिमहिट्ठिदजीवे अणियमेणुहयदिसाविसयसुदणाणुप्पायणसहावोभयसारिबुद्धीए अवट्ठाणविरोहादो। ण च एक्कम्हि जीवे सव्वदा चदुण्हं घुद्धीणं अक्कमेण अणुपत्ती चेव, र बुद्धि तवो वि य लद्धी विउवणलद्धी तहेव ओसहिया । रस-बल अक्खीणा वि य लद्धीओ सत्त पण्णत्ता ॥ १८ ॥ ति सुत्तगाहाए वक्खाणम्मि गणहरदेवाणं चदुरमलबुद्धीण दंसणादो । किं च अस्थि गणहरदेवेसु चत्तारि बुद्धीओ, अण्णहा दुवालसंगाणमणुप्पत्तिप्पसंगादो। तं कधं ? ण ताव तत्थ कोहबुद्धीए अभावो, उप्पणसुदणाणस्स अवट्ठाणेण विणा विणासप्पसंगादो। ण बीजबुद्धीए अभावो, ताए विणा अणवगयतित्थवरवयणविणिग्गयअक्खराणक्खरप्पयबहुलिंगालिंगियबीज ................ नहीं हैं, क्योंकि, उभय [अधस्तन व उपरिम] दिशा विषयक श्रुतज्ञानके उत्पन्न करने में समर्थ ऐसी बीजबुद्धिको प्राप्त जीवमें बीजबुद्धिके विरुद्ध अनुसारी और प्रतिसारी बुद्धियोंके अवस्थानका विरोध है। उभयसारी बुद्धि भी सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, 'वह अधस्तन श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिका कारण होकर उपरिम श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिका कारण होती है' ऐसे नियमसे सम्बद्ध बीजबुद्धि युक्त जीवमें अनियमसे उभय दिशा विषयक श्रुतज्ञानको स्वमावसे उत्पन्न करनेवाली उभयसारी बुद्धिके अवस्थानका विरोध है। और एक जीवमें सर्वदा चार बुद्धियोंकी एक साथ उत्पत्ति हो ही नहीं, ऐसा है नहीं; क्योंकि, बुद्धि, तप, विक्रिया, औषधि, रस, बल और अक्षीण, इस प्रकार ऋद्धियां सात कही गई हैं ॥ १८॥ इस सूत्रगाथाके व्याख्यानमें गणधर देवोंके चार निर्मल बुद्धियां देखी जाती हैं । तथा गणधर देवोंके चार वुद्धियां होती हैं, क्योंकि, उनके विना बारह अंगोंकी उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसंग आवेगा। शंका-बारह अंगोंकी उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसंग कैसे होगा ? समाधान- गणधर देवोंमें कोष्ठबुद्धिका अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर अवस्थानके विना उत्पन्न हुए श्रुतज्ञानके विनाशका प्रसंग आवेगा। बीजबुद्धिका अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि, उसके विना गणधर देवोंको तीर्थकरके मुखसे निकले हुए अक्षर १ प्रतिषु — कारणमहोदूणुवरिम; ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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