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________________ १०२) छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १, ४३. णिहादि सो अक्खीणमहाणसो णाम । जम्हि चउहत्थाए वि गुहाए अच्छिदे संते चक्कवट्टिखंधावारं पि सा गुहा अवगाहदि सो अक्खीणावासो' णाम । तेसिमक्खीणमहाणसाणं णमो । कधमेदासिं सत्तीणमत्थित्तमवगम्मदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो णव्वदे, जिणेसु अण्णहावाझ्नाभावादो। (णमो लोए सव्वसिद्धायदणाणं ॥ ४३ ॥ सव्वसिद्धवयणेण पुव्वं परविदासेसजिणाणं गहणं कायव्यं, जिणेहिंतो पुधभूददेससव्वसिद्धाणमणुवलंभादो । सव्वसिद्धाणमायदणाणि सवसिद्धायदणाणि । एदेण कट्टिमाकट्टिमजिणहराणं जिणपडिमाणमीसिपब्भारुज्जंत-चंपा-पावाणयरादिविसयणिसीहियाणं च गहणं । तेसिं जिणायदणाणं णमो। ऋद्धिधारक कहलाता है। जिसके चार हाथ प्रमाण भी गुफामें रहनेपर चक्रवर्तीका सैन्य भी उस गुफामें रह सकता है वह अक्षीणावास ऋद्विधारक है। उन अक्षीणमहानस जिनोंको नमस्कार हो। शंका- इन शक्तियोंका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे उनका अस्तित्व जाना जाता है, क्योंकि, जिन भगवान् भन्यथावादी नहीं हैं। लोकमें सब सिद्धायतनोंको नमस्कार हो ॥ ४३॥ 'सब सिद्ध' इस वचनसे पूर्वमें कहे हुए समस्त जिनोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, जिनोंसे पृथग्भूत देशसिद्ध व सर्वसिद्ध पाये नहीं जाते। सब सिद्धोंके जो आयतन हैं वे सर्व-सिद्धायतन हैं। इससे कृत्रिम व अकृत्रिम जिनगृह, जिनप्रतिमा तथा ईषत्प्राग्भार, ऊर्जयन्त, चम्पापुर व पावानगर आदि क्षेत्रों व निर्धाधिकाओंका भी ग्रहण करना चाहिये । उन जिनायतनोको नमस्कार हो। १ लामंतरायकम्मक्खउवसमसंजुदाए जीए फुडं । मुणिभुत्तसेसमण्णं धामत्थं पियं जं कं पि॥ तदिवसे खज्जंतं बंधावारेण चक्कवहिस्स । झिज्जइ ण लवेण वि सा अक्खीणमहाणसा रिद्धी ।। जीए चउधणुमाणे समचउरसालयम्मि गर-तिरिया | मंति यसखेज्जा सा अक्खीणमहालया रिद्धी ॥ ति. प. ४, १०८९-१०९१. लाभान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षप्राप्तेभ्यो यतिभ्यो यतो भिक्षा दीयते ततो भाजनाच्चक्रधरस्कंधावारोऽपि यदि भुंजीत तद्दिवसे नान्नं क्षीयते ते अक्षीणमहानसाः। अक्षीणमहालयलब्धिप्राप्ता यतयो यत्र वसन्ति देव-मनुष्य-तैर्यग्योना यदि सर्वेऽपि तत्र निवसेयुः परस्परमबाधमानाः सुखमासते । त. रा. ३, ३६, २. अक्खीणमहाणसिया भिक्खं जेणाणियं पुणो तेणं । परिभुत्तं चिय खिज्जइ बहुएहि विन उण अन्नेहि ॥ प्रवचनसारोद्धार १५०४. २ प्रतिषु विसणिसीहियाणं' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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