________________
४, १,४५. ]
कदि अणियोगद्दारे सुतावरण
[ २२९
पुव्वाणुपुवीए चयणलद्धी पंचमी । पच्छाणुपुवीए दसमं । जत्थ- तत्थाणुपुवीए अवत्तव्वा, पढमा बिदिया तदिया चउत्थी पंचमी छट्ठी वा त्ति नियमाभावादो । चयणलद्धि त्ति गुणणामं, चयणलद्धिपरूवणादो । अक्खर - पद-संघाद - पडिवत्ति - अणियोगद्दारेहि संखेज्ज - [ मत्थदो अणतं, पमेयाण- ] माणंतियादो । वत्तव्वं ससमओ, परसमयपरूवणाभावादो | अत्थाधियारो वीसदिविधो, सव्ववत्थुसु पाहुडसण्णिदवीस-वीसाहियारसंभवादो । एत्थुवउज्जती गाहासं वीसं च पाहुडा मणिदा' | "विसम-समा हि यत्थू सव्वे पुण पाहुडेहि समा ॥ ८६ ॥ )
पुव्वाणं पुध पुध पाहुडसमासो एसो - २००, २८०, १६०, ३६०, २४०, २४०, ३२०, ४००, ६००, ३००, २००, २००, २००, २०० । सव्ववत्समासो पंचाणउदिसदमेत्तो | १९५ ] । सव्वपाहुडसमास तिसहस्स-णवसदमेत्तो' | ३९०० |
( एत्थ वीसपाहुडेसु चउत्थेण कम्मपथडिपाहुडेण अहियारो । तस्स वि उवक्कमो
---
अनुगम शब्द सिद्ध हुआ है । पूर्वानुपूर्वीसे चयनलब्धि पांचवीं है । पश्चादानुपूर्वी से वह दसमी है । यत्र-तत्रानुपूर्वीसे वह अवक्तव्य है, क्योंकि प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पांचवीं अथवा छठी है, ऐसे नियमका यहां अभाव है । चयनलब्धि यह गुणनाम है, क्योंकि, इसमें चयनलब्धिकी प्ररूपणा है । अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वारोंकी अपेक्षा संख्यात और अर्थकी अपेक्षा वह अनन्त है, क्योंकि, उसके प्रमेय अनन्त हैं । वक्तव्य स्वसमय है, क्योंकि, परसमयप्ररूपणाका यहां अभाव है । अर्थाधिकार बीस प्रकार है, क्योंकि, सब वस्तुओंमें प्राभृत संज्ञावाले बीस बीस अधिकार सम्भव हैं। यहां उपयुक्त गाथा -
एक एक वस्तुमें बीस बीस प्राभृत कहे गये हैं । पूर्वौमें वस्तुएं सम व विसम हैं, किन्तु वे सब वस्तुएं प्राभृतोंकी अपेक्षा सम हैं ॥ ८६ ॥
पूर्वोके पृथक् पृथक् प्राभृतोंका योग यह है - २००, २८०, १६०, ३६०, २४०, २४०, ३२०, ४००, ६००, ३००, २००, २००, २००, २०० । सब वस्तुओंका योग एक सौ पंचानबे मात्र होता है १९५ । सब प्राभृतोंका योग तीन हजार नौ सौ मात्र होता है ३९०० ।
यहां चयनलब्धिके बीस प्राभृतोंमेंसे चतुर्थ कर्मप्रकृतिप्राभृतका अधिकार है ।
१ प्रत्येकं विंशतिस्तेषां वस्तूनां प्राभृतानि तु ॥ ह. पु. १०, ७४. वीस वीसं पाहुडअहियारे एक्काअहियारो । गो. जी. ३४२.
२ पण उदिया वत्थू पाहुडया तियसहस्सणवसया । एवेस चोदसेस वि पुम्बेसु हवंति मिलियाणि ॥ गो. जी. ३४६. ३ प्रतिषु ' चउत्थेस ' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org