SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 459
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२] . छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ७१. परिसादणकदी विसेसाहिया । कारणं सुगमं । सव्वत्थोवा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी, संखेज्जत्तादो । संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, अपज्जत्तजीवाणं पाधणियादो। मणुसपज्जत्त-मणुसणीसु सव्वत्थोवा ओरालियपरिसादणकदी, विउव्वमाणजीवाण बहुआणमसंभवाद।। संघादणकदी संखेज्जगुणा, मणुसपज्जत्तएसु उप्पज्जमाणजीवाणं बहुत्तुवलंभादो । संघादण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा । सुगमं । वेउव्विय-आहारतिण्णिपदाणं मणुसभंगो। सव्वत्थोवा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी। संघादण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा । सुगमं । मणुसणीसु आहारतिग णत्थि, अच्चंताभावादो । मणुसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । एइंदिय-बादरेइंदियाणं तेसिं पज्जत्ताणं च तिरिक्खभंगो। बादरेइंदियअपज्जत्त-सव्वसुहुमेइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्त-सव्वपुढवीकाइय-सव्वआउकाइय-बादरतेउ विशेष अधिक है। कारण इसका सुगम है। तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, वे संख्यात हैं । इनसे संघातन परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, इनमें अपर्याप्त जीवोंकी प्रधानता है। मनुष्य पर्याप्तों और मनुष्यनियोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, इनमें विक्रिया करनेवाले बहुत जीवोंकी सम्भावना नहीं है । इनसे उसकी संधातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, मनुष्य पर्याप्तोमें उत्पन्न होनेवाले जीव बहुत पाये हैं। इनसे उसकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। [ कारण ] सुगम है। __वैक्रियिक और आहारकशरीरके तीन पदोंकी प्ररूपणा सामान्य मनुष्योंके समान है। तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, इनसे उनकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुण हैं । कारण सुगम है । मनुष्यनियोंमें आहारकशरीरके तीनों पद नहीं होते, क्योंकि, इनमें उनका अत्यन्ताभाव है। मनुष्य अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है । एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्तोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सब सूक्ष्म एकेन्द्रिय,सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, बादर तेजकायिक अपर्याप्त, सब सूक्ष्म तेजकायिक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy