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________________ ४, १,४५.] कदिअणियोगद्दारे सुत्तावयरणं [ १८७ तर संते ठवणुववत्तदो । दव्वसुदाणं पि दव्वट्ठियणयविसओ, आहाराहेयाणमेयत्तकपणाए दव्वसुदग्गहणादो । भावणिक्खेवो पज्जवट्ठियणयविसओ, वट्टमाणपज्जाएणुवलक्खियदवगहणादो | णिक्खेवट्ठो वुच्चदे - णाम- दुवणा-आगम-णोआगमदव्वसुदणाणाणि सुगमाणि । णवरि सुदणाणहेदुभूद्गुरु- कवलियादीणि तव्वदिरित्तणोआगमदव्त्र सुदणाणं ति वत्तव्यं । सुदवजुत्ता पुरसो भावसुदणाणं । एवं णिक्खेव णयपरूवणाओ गदाओ । सुदणाणं पमाणं, ण प्पमेओ; तेणेत्थ अणहियारादो | अणुगमा गदो । पुत्रवाणुपुवीए बिदियं, पच्छाणुपुत्रीए चउत्थं, जहा - तहाणुपुवीए पढमं बिदियं तदियं वा । सुणाणं इदि णामं गोगोणं, सोदादिइंदिएहिंतो अणुप्पण्णस्स णाणस्स सुदणाणसण्णा गोण्णत्ताभावाद । पमाणमेक्कं चेव, सुदत्तमेत्तविवक्खादो । अक्खर -पद-संवादपडिवत्ति-अणियोगद्दारविवक्खाए सुदणाणं संखेज्जं । अथवा अगंत, पमेयाणंतियादो । वत्तव्वं स-परसमया, सुणय-दुण्णयसरूवपरूवणादो | अंगम गंगामिदि वे अत्याहियारा । सामाइयं बन सकती है । द्रव्यश्रुतज्ञान भी द्रव्यार्थिकनयका विषय है, क्योंकि, आधार और आधेयके एकत्वकी कल्पनासे द्रव्यश्रुतका ग्रहण किया गया है । भावनिक्षेत्र पर्यायार्थिक नयका विषय है, क्योंकि, वर्तमान पर्यायले उपलक्षित द्रव्यका यहां भाव रूपले ग्रहण किया गया है । निक्षेपका अर्थ कहते हैं - नाम, स्थापना तथा आगम व नोआगम द्रव्यश्रुतज्ञान सुगम हैं। विशेष इतना है कि श्रुतज्ञानके निमित्तभूत गुरु और कवलिआ ( ज्ञानका एक उपकरण ) आदि तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यश्रुतज्ञान है, ऐसा कहना चाहिये । श्रुतज्ञानके उपयोग से युक्त पुरुष भावश्रुतज्ञान है । इस प्रकार निक्षेप और नयकी प्ररूपणा समाप्त हुई । श्रुतज्ञान प्रमाण है, प्रमेय नहीं है; क्योंकि, उसका यहां अधिकार नहीं है । अनुगमकी प्ररूपणा समाप्त हुई । वह श्रुतज्ञान पूर्वानुपूर्वी से द्वितीय, पश्चादानुपूर्वीसे चतुर्थ और यथा तथानुपूर्वी से प्रथम, द्वितीय अथवा तृतीय है। श्रुतज्ञान यह नाम नोगोण्य है, क्योंकि, श्रोत्रादिक इन्द्रियोंसे नहीं उत्पन्न हुए ज्ञानकी श्रुतज्ञान संज्ञाके गोण्यताका अभाव है । प्रमाण एक ही है, क्योंकि, यहां श्रुतसामान्यकी विवक्षा है। अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वार की विवक्षासे श्रुतज्ञान संख्यात है । अथवा, प्रमेय अनन्त होनेसे वह अनन्त है । वक्तव्य स्वसमय और परसमय हैं, क्योंकि, सुनय और दुर्नय के स्वरूपकी यहां प्ररूपणा की गई है । अंगश्रुत और अनंगश्रुत इस प्रकार अर्थाधिकार दो हैं । सामायिक, चतुर्विंशति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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