SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ छक्खंडागमे यणाखंड [१, १, ५९. दव्वसंभवं पडि विरोहाभावादो। उजुसुदे किमिदि अणेयसंखा णस्थि ? एयसहस्स एयपमाणस्स य एगत्थं मोत्तूण अणेगत्थेसु एक्ककाले पवुत्तिविरोहादो । ण च सद्द-पमाणाणि बहुसत्तिजुत्ताणि अस्थि, एक्कम्हि विरुद्धाणेयसत्तीण संभवविरोहादो एयसंखं मोत्तूण अणेयसंखाभावादो वा। सद्दणयस्स अवत्तव्वं ॥ ५९॥ कुदो ? एदस्स विसए दव्वाभावादो। सा सव्वा आगमदो दव्वकदी णाम ॥ ६०॥ सा सव्वा इदि वयणेण पुव्वुत्तासेसकदीणं गहण कायव्वं । कथं बहूणमेगवयणणिदेसो १ ण एस दोसो, बहूणं पि कदित्तणेण एगत्तमावण्णाणमेगवयणणिद्देसोववत्तीदो । विरोध नहीं है। शंका-ऋजुसूत्रनयमें अनेक संख्या क्यों नहीं सम्भव है ? समाधान - चूंकि इस नयकी अपेक्षा एक शब्द और एक प्रमाणकी एक अर्थको छोड़कर अनेक अर्थों में एक कालमें प्रवृत्तिका विरोध है, अतः उसमें अनेक संख्या सम्भव नहीं है । और शब्द व प्रमाण बहुत शक्तियोंसे युक्त हैं नहीं, क्योंकि, एकमें विरुद्ध अनेक शक्तियोंके होनेका विरोध है, अथवा एक संख्याको छोड़ अनेक संख्याओंका यहां अभाव है। शब्दनयकी अपेक्षा अवक्तव्य है ॥ ५९ ॥ इसका कारण शब्दनयके विषयमें द्रव्यका अभाव है। वह सब आगमसे द्रव्यकृति कहलाती है ॥ ६० ॥ 'वह सब ' इस वचनसे पूर्वोक्त समस्त कृतियोंका ग्रहण करना चाहिये । शंका-बहुत कृतियों के लिये एक वचनका निर्देश कैसे किया ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कृतिस्वरूपसे अभेदको प्राप्त बहुत कृतियोंके लिये भी एक वचनका निर्देश युक्तिसंगत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy