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________________ ४, १, ७१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [३५९ इट्ठी ओघं । वेदगसम्मादिट्ठीणं चक्खुदंसणिभंगो । उवसमसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठीण विभंगणाणिभंग।। सासणसम्माइट्टि-मिच्छाइट्ठीणं असंजदभंगो । एवमसण्णीण । सण्णीणं पुरिसवेदभंगो। आहारएसु चक्खुदंसणिभंगो। अणाहारएसु अत्थि ओरालियपरिसादणकदी तेजाकम्मइयपरिसादणकदी संघादण-परिसादणकदी च । एवं संताणुगमो समत्तो । दव्वपमाणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण ओरालियसंघादणकदी संघादण-परिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी दव्वपमाणेण केवडिया ? अणता । ओरालियपरिसादणकदी वेउब्वियतिण्णिपदा केत्तिया ? असंखेज्जा पदरस्स असंखेज्जदिभागो। आहारतिण्णिपदा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी केत्तिया? संखेज्जा। कधं कदिसद्दो जीवाणं वाचओ ? क्रियन्ते अस्यां पुद्गलपरिसादनादय इति कृतिशब्दनिष्पत्तिः, करणाणं मूलं कारणमिदि जीवा मूलकरणं । गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु वेउब्वियसंघादणकदी संघादण-परिसादणकदी वेदकसम्यग्दृष्टियोंकी प्ररूपणा चक्षुदर्शनी जीवोंके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा विभंगशानियों के समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा असंयतोंके समान है। इसी प्रकार असंशी जीवोंकी प्ररूपणा करना चाहिये। संशियोंकी प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है। आहारक जीवोंकी प्ररूपणा चक्षुदर्शनियोंके समान है। अनाहारक जीवोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी परिशातनकृति और संघातन-परिशातनकृति भी होती है। इस प्रकार सत्प्ररूपणानुगम समाप्त हुआ। द्रव्यप्रमाणानुगमसे ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकार निर्देश है। उनमें ओघकी अपेक्षा औदारिकशरीरकी संघातनकृति, संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव द्रव्य प्रमाणसे कितने हैं ? उक्त जीव अनन्त हैं । औदारिकशरीरकी परिशांतनकृति और वैक्रियिकशरीरके तीनों पद युक्त जीव, कितने हैं ? जगप्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात हैं । आहारकशरीरके तीनों पद युक्त तथा तैजस व कार्मण शरीरकी परिशातनकति युक्त जीव कितने हैं? संख्यात हैं। शंका-कृति शब्द जीवोंका वाचक कैसे हो सकता है ? समाधान-एक तो जिस में पुद्गलोंके परिशातनादिक किये जाते हैं वह कृति है, ऐसी कृति शब्दकी व्युत्पत्ति है इसलिये कृति शब्दसे जीव लिये गये हैं। दूसरे करणोंका मूल अर्थात् कारण होनेसे जीव मूलकरण हैं इसलिये भी कृतिशब्दका उपयोग जीवोंके । लिये किया गया है। गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकियोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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