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________________ १२८ छक्खंडाग: वेयणाखंड [१, १,७१. प्रणेण खुद्दाभवग्गहणं चदुसमऊणं, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि समऊणपुवकोडीए सादिरेयाणि । ओरालियपरिसादणकदी वेउवियतिण्णिपदा ओघ । णवरि जम्हि अणंतो कालो तम्हि अंगुलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीओ। ओरालियसंघादणपरिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघ । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि । आहारतिगमोघं । णवरि उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीओ । तेजा-कम्मइयएगपदमोघं । अणाहारएसु ओरालिय-तेजा-कम्मइयपरिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण उक्कस्सेण णस्थि अंतरं । तेजाकम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए गाणेगजीवं णत्थि अंतरं । एवमंतराणुगमो समत्तो। भावाणुगमेण सव्वपदाणं सव्वमग्गणासु ओदइओ भावो । कुदो ? सरीरणामकम्मोदएण सव्वपदसमुप्पत्तीदो । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी खइया । कुदो ? अजोगिम्हि सरीरणामोदयक्खएण तेसिं परिसदणुवलंभादो । एवं भावाणुगमो समत्तो । ग्रहण और उत्कर्षसे एक समय कम पूर्वकोटिसे अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी परिशातनकृति और बैंक्रियिकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि जहांपर अनन्त काल कहा है वहांपर अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण काल कहना चाहिये । भौदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तमुहूर्तसे अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है । आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । विशेष इतना है कि उनका अन्तर उत्कर्षसे अंगुलके असं. ख्यातवें भाग मात्र असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल प्रमाण होता है। तैजस व कार्मणशरीरके एक पदकी प्ररूपणा ओघके समान है। अनाहारकोंमें औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उकर्षसे छह मास प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्य व उत्कर्षले नहीं होता। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन कृतिका नाना व एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। भावानुगमकी अपेक्षा सब पदोंके सब मार्गणाओंमें औदयिक भाव होता है, ज्योकि सब पद शरीरनामकर्मके उदयसे उत्पन्न होते हैं। विशेष इतना है कि तेजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति क्षायिक है, क्योंकि, अयोगकेवली जिनमें शरीरनामकमेके उदयश्रयसे उन दोनों शरीरोकी क्षीणता पायी जाती है। इस प्रकार भावानगम समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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