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________________ ४, १, १५.] कदिअणियोगद्दारे सुत्तावयरणं [२१७ वाक्संस्कारकारणाणि शिरःकंठादीन्यष्टौ स्थानानि । वाक्प्रयोगः शुभेतरलक्षणः सुगमः । अभ्याख्यान-कलह-पैशून्याबद्धप्रलाप-रत्यरत्युपधि-निकृत्यप्रणति-मोष-सम्यग्मिथ्यादर्शनात्मिका भाषा द्वादशधा। अयमस्य कति अनिष्टकथनमभ्याख्यानम् । कलहः प्रतीतः । पृष्ठतो दोषाविष्करणं पैशून्यम् । धर्मार्थ-काम-मोक्षासम्बद्धा वागबद्धप्रलापः । शब्दादिविषयेषु रत्युत्पादिका रतिवाक् । शब्दादिविषयेष्वरत्युत्पादिका अरतिवाक् । यां वाचं श्रुत्वा परिग्रहार्जन-रक्षणादिष्वासज्यते सोपधिवाक् । वणिग्व्यवहारे यामवधार्य निकृतिप्रवण आत्मा भवति सा निकृतिवाक् । यां श्रुत्वा तपोविज्ञानाभ्यधिकेष्वपि न प्रणमति सा अप्रणतिवाक् । यां श्रुत्वा स्तेये प्रवर्तते सा मोषवाक् । सम्यङ्मार्गस्योपदेष्ट्री सम्यग्दर्शनवाक् । तद्विपरीता मिथ्यादर्शनवाक् । वक्तारश्चाविष्कृतवक्तृत्वपर्याया वीन्द्रियादयः । द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावाश्रयमनेकप्रकारमनृतम् । वचनसंस्कारके कारण हैं । शुभ या अशुभ रूप वचनका प्रयोग सुगम है । अभ्याख्यान, कलह, पैशून्य, अबद्धप्रलाप, रति, अरति, उपधि, निकृति, अप्रणति, मोष, सम्यग्दर्शन व मिथ्यादर्शन स्वरूप भाषा बारह प्रकार है। यह इसका कर्ता है इस प्रकार अनिष्ट कथनका नाम अभ्याख्यान है । कलह प्रसिद्ध है । पीछे दोषोंका प्रगट करना पैशून्य कहा जाता है। धर्म, अर्थ, काम व मोक्षसे असम्बद्ध वचनका नाम अबद्धप्रलाप है । शब्दादिक विषयों में रतिको उत्पन्न करनेवाला वचन रतिवाक् है । शब्दादिक विषयों में अरतिको उत्पन्न करनेवाला वचन अरतिवाक् है। जिस वचनको सुनकर परिग्रहके उपार्जन करने और उसके रक्षणादिकमें आसक्त होता है वह उपधिवाक् कहलाता है। जिस वचनको सुनकर आत्मा वणिग्व्यवहार अर्थात् व्यापारमें कपटपरायण होता है वह निकृतिवाक् है । जिस वचनको सुनकर प्राणी तप और विज्ञानसे अधिक जीवोंको भी प्रणाम नहीं करता है वह अप्रणतिवाक् है। जिस वचनको सुनकर चौर्य कार्यमें प्रवृत्त होता है वह मोषवचन है। समीचीन मार्गका उपदेश करनेवाला वचन सम्यग्दर्शनवाक् है । इससे विपरीत अर्थात् मिथ्यामार्गका उपदेश करनेवाला वचन मिथ्यादर्शनवाक् है । वक्ता प्रगट हुई वक्तृत्व पर्यायसे संयुक्त द्वीन्द्रियादिक जीव हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रयकर असत्य वचन अनेक प्रकार है। १ प्रतिषु तपोविज्ञानाभ्या केष्वपि ' इति पाठः। २ प्रतिषु ' अप्रणमतिवाक् ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'सम्यक्मार्गस्योपदेष्ट ' इति पाठः। ४ हिंसादेः कर्मणः कर्तुः विरतस्य विरताविरतस्य वाध्यमस्य कर्तेत्यभिधानमभ्याख्यानम् । त. रा. १, २०, १२. हिंसाधकर्तुः कर्तुर्वा कर्तव्यमिति भाषणम् । अभ्याख्यानं प्रसिद्धो हि वागादिकलहः पुनः ॥ दोषाविष्करणं दुष्टैः पश्चात्पैशून्यभाषणम् । भाषाबद्धप्रलापाख्या चतुर्वर्गविवर्जिता ।। रत्यरत्यभिधे वोभे [चोमे ] रत्यरत्युपपादिके । आसज्यते जयार्थेषु श्रोता सोपधिवाक् पुनः॥ वंचनाप्रवणं छ, क. २८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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