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________________ १, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे णयपरूवणा [ १६७ श्रेयसो मोक्षस्यापदेशः कारणम् । कुतः? याथात्म्योपलब्धिनिमित्तभावात् । तथा सारसंग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादैः - अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय' इति । भवतु नाम अभिप्रायवतः प्रयोक्तुर्नयव्यपदेशः, न प्रयोगस्य; तत्र नित्यत्वानित्यत्वाद्यभिप्रायाणामभावादिति ? न, नयतस्समुत्पन्नप्रयोगस्यापि प्रयोक्तुरभिप्रायप्ररूकस्य कार्य कारणोपचारतो नयत्वसिद्धेः । तथा सभन्तमद्रस्वामिनाप्युक्तम् ___स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजको नयः ॥ ५५ ॥ इति स्याद्वादः प्रमाण कारणे कार्योपचारात् , तेन प्रविभक्ताः प्रकाशिताः अर्थाः ते स्याद्वादप्रविभक्तार्थाः, तेषां विशेषा पर्यायाः, जात्यहेत्ववष्टंभवलेन तेषां व्यंजकः प्ररूपकः यः स नय इति । __ स एवंविधो नयो द्विविधः द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति । द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रवत्तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यम्'। एतेन तद्भाव-सादृश्यलक्षणसामान्ययोर्द्वयोरपि ग्रहणम् , वस्तुनः कारण है । नयको जो मोक्षका कारण बतलाया है उसका हेतु पदार्थोकी यथार्थोपलब्धिनिमित्तत्ता है। तथा सारसंग्रहमें भी पूज्यपाद स्वामीने कहा है- अनन्त पर्याय स्वरूप वस्तुकी किसी एक पर्यायका ज्ञान करते समय श्रेष्ठ हेतुकी अपेक्षा करनेवाला निर्दोष प्रयोग नय कहा जाता है। शंका-अभिप्राय युक्त प्रयोगकर्ताकी नय संशा भले ही हो, किन्तु प्रयोगकी वह संज्ञा नहीं हो सकती; क्योंकि, उसमें नित्यत्व व अनित्यत्व आदि अभिप्रायोंका अभाव है? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रयोगकर्ताके अभिप्रायको प्रगट करनेवाले नयजन्य प्रयोगके भी कार्यमें कारणका उपचार करनेसे नयपना सिद्ध है। तथा समन्तभद्र स्वामीने भी कहा है--स्याद्वादसे प्रकाशित पदार्थों की पर्यायोंको प्रगट करनेवाला नय है। इस कारिकाके उत्तरार्धमें प्रयुक्त 'स्याद्वाद' शब्दका अर्थ कारणमें कार्यका उपचार करनेसे प्रमाण होता है। उस प्रमाणसे प्रविभक्त अर्थात् प्रकाशित जो पदार्थ हैं उनके विशेष अर्थात् पर्यायोंका जो श्रेष्ट हेतुके बलसे व्यञ्जक अर्थात् प्ररूपण करता हो वह नय है। उपर्युक्त स्वरूपवाला वह नय दो प्रकार है-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । जो उन उन पर्यायोंको प्राप्त होता है, प्राप्त होगा अथवा प्राप्त हुआ है वह द्रव्य है। इस निरुक्तिसे तद्भाव सामान्य और सादृश्य सामान्य दोनोंका ही ग्रहण किया गया है, १ जयध. १, पृ. २११. २ जयध. १, पृ. २१०. ३ आ. मी. १०६. ४ तस्य द्वौ मूलभेदी द्रव्यास्तिकः पर्यायास्तिक इति । त. रा. १, ३३, १. ५ दवियदि गच्छदि ताई ताई सम्भावपज्जयाई जं। दवियं तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो॥ पंचा.९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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