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________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगहारे करणकदिपरूवणा [ ११० जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोगुहुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अट्ठावण्णपलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणव्वहियाणि । वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणव्वहियाणि । तेजा-कम्मइयएगपदमोघं। - पुरिसवेदाणमोरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च इत्थिवेदभंगो । एगजीवं पडुच्च ओघ । णवरि जहण्णेण अंतोमुहुत्तं तिसमऊणं । ओरालिय वेउब्वियपरिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्त, उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए ओघ । वेउव्वियसंघादणकदीए णाणाजीवं पड्डुच्च ओघं । एगजीवं पड्डुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि समयाहियपुव्वकोडीए अहियाणि । वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघ । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण उक्कस्सेण इथिवेदभंगो । आहारतिण्णिपदा ओघ । णवरि एगजीवं उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक अट्ठावन पल्योपम काल प्रमाण होता है। वैक्रियिक. शरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नांना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम काल प्रमाण होता है। तैजस व कार्मणशरीरके एक पदकी प्ररूपणा ओघके समान है। पुरुषवेदियोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा स्त्रीवेदियोंके समान है। एक जीवकी अपेक्षा ओघके समान है। विशेष इतना है कि जघन्य अन्तर तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । औदारिक और वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । एक जीवकी अपेक्षा वह जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व काल प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर ओघके समान है । वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय व पूर्वकोटिसे अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे व उत्कर्षसे स्त्रीवेदियोंके समान है। आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे १ प्रतिषु ' पढमोघं ' इति पाठः। छ. क. ५३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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