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________________ १५२ ] छक्खंडागमे बयणाखंडं [ ४, १, ४५. बहुविधः । न चायमसिद्ध;, उपलभ्यमानत्वात् । न चोपलंभोऽपहातुं पार्यते, अव्यवस्थापत्तेः, जातिविषयबहुप्रत्ययनिवन्धनबहुवचनव्यवहाराभावापत्तेश्च । एकजातिविषयत्वादेतत्प्रतिपक्षः प्रत्ययः एकविधः । न चैकप्रत्ययेऽस्यान्तर्भावस्तस्य व्यक्तिगतैकत्ववर्तित्वात् , एतस्य चानेकव्यक्त्यनुविद्वैकजातिवर्तित्वात् । क्षिप्रवृत्तिः प्रत्ययः क्षिप्रः । अभिनवशरावगतोदकवत् शनैः परिच्छंदानः अक्षिप्रप्रत्यय:। वस्वेकदेशमवलम्व्य साकल्येन वस्तुग्रहणं वस्त्वेकदेशं समस्तं वा अवलम्ब्य तत्रासन्निहितवस्त्वंतरविषयोऽप्यनिःसृतप्रत्ययः । न चायमसिद्धः, घटावाग्भागमवलम्ब्य क्वचिद्घटप्रत्ययस्य उत्पत्त्युपलंभात् , शीत आदि स्पर्शीमें एक साथ रहनेवाला स्पर्शज बहुविध प्रत्यय है। यह प्रत्यय आसिद्ध नहीं है, क्योंकि, वह पाया जाता है । और जिसकी प्राप्ति है उसका अपह्नव नहीं किया जा सकता, क्योंकि, ऐसा करने में अव्यवस्थाकी आपत्तिके साथ जातिविषयक बहुप्रत्ययके निमित्तसे होनेवाले बहुवचनके भी व्यवहारके अभावकी आपत्ति आवेगी । एक जातिको विषय करने के कारण इसके प्रतिपक्षभूत प्रत्ययको एकविध कहते हैं। इसका अन्तर्भाव एक प्रत्ययमें नहीं हो सकता, क्योंकि, वह (एकप्रत्यय) व्याक्तिगत एकतामें सम्बद्ध रहनेवाला है और यह अनेक व्यक्तियों में सम्बद्ध एक जातिमें रहनेवाला है। क्षिप्रवृत्ति अर्थात् शीघ्रतासे वस्तुको ग्रहण करनेवाला प्रत्यय क्षिप्र कहा जाता है। नवीन सकोरमें रहनेवाले जलके समान धीरे वस्तुको ग्रहण करनेवाला अक्षिप्र प्रत्यय है। वस्तुके एक देशका अवलम्बन करके पूर्ण रूपसे वस्तुको ग्रहण करनेवाला तथा वस्तुके एक देश अथवा समस्त वस्तुका अवलम्बन करके वहां अविद्यमान अन्य वस्तुको विषय करनेवाला भी अनिःसृत प्रत्यय है। यह प्रत्यय असिद्ध नहीं है, क्योंकि, घटके अर्वाग्भागका अवलम्बन करके कहीं घटप्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है, कहीं पर 'गायके समान गवय होता है। १ एकजातिविषयः प्रत्ययः एकविधः । न चैकविधैकप्रत्ययोरेकत्वम् , जाति-व्यक्तयोरेकत्वाभावतस्तद्विषयप्रत्यययोरेकत्वाभावात् । च. अ. प. ११६९. अल्पविशुद्धि श्रोन्द्रियादिपरिणामकारण आत्मा ततादिशब्दानामेकविधावग्रहणादेकविधमवगृह्णाति । त. रा. १, १६, १५. यदा वेकमनकं वा शब्दमेकपयर्यायविशिष्टमवगृहाति तदा सोबहुविधावग्रहः । नं. सू. ( म. वृत्ति ) ३६. २ आश्वर्थग्राही क्षिप्रप्रत्ययः । ध. अ. प. ११६९. ३ ध. अ. प. ११६९. ४ वस्त्वेकदेशस्य आलन्बनीभूतस्य ग्रहणकाले एकवस्तुप्रतिपत्ति: वस्त्वेकदेशप्रतिपतिकालएव वा दृष्टान्तमुखेन अन्यथा वा अनवलम्बितवस्तुप्रतिपति: अनुसंधानः प्रत्ययः प्रत्यभिज्ञापत्ययश्च अनिःसृतप्रत्ययः। ध.अ. प. ११६९. मुविशुद्धिश्रोत्रादिपरिणामात्साकश्येनानुच्चारितस्य ग्रहणादनिःसृतमवगृह्णाति । निसृतं प्रतीतम् । त. रा १, १६, १५ तमेव शब्दं स्वरूपेण यदा जानाति, न लिंगपरिम्रहात् , तदाऽनिश्रितावग्रहः । लिंगपरिग्रहेण त्ववगच्छतो निश्रितावग्रहः । अथवा परधविमिश्रितं यद्ग्रहणं तन्मिश्रितावग्रहः । यत्पुनः परधर्मेरमिश्रितस्य गहण तदमिश्रितावग्रहः । नं. सू. (म वृत्ति) ३६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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