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________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवणा [१५१ नासौ यौगपद्येन द्वि-त्रादिविज्ञानाभावे उत्पद्यते, विरोधात् । प्रतिद्रव्यभिन्नानां प्रत्ययानां कथमेकत्वमिति चेन्नाक्रमेणैकजीवद्रव्यवर्तिनां परिच्छेद्यभेदेन बहुत्वमादधानानामेकत्वविरोधात् । ___ एकाभिधान-व्यवहारनिबन्धन. प्रत्यय एकः । विधग्रहणं प्रकारार्थम्', बहुविधं बहुप्रकारमित्यर्थः । जातिगतभूयःसंख्याविषयः प्रत्ययो बहुविधः । गो-मनुष्य-हय-हस्त्यादिजातिगताक्रमप्रत्ययश्चक्षुर्जः। श्रोत्रजस्तत-वितत-धन-सुषिरादिजातिविषयोऽक्रमप्रत्ययः। प्राणजः कर्पूरागुरु-तुरुष्क-चन्दनादिगन्धगताक्रमवृत्तिः प्रत्ययः । रसनजस्तिक्त-कषायाम्ल-मधुर-लवणरसेष्वक्रमवृत्तिः प्रत्ययः । स्पर्शजः स्निग्ध-मृदु-कठिनोष्म-गुरु-लघु-शीतादिस्पर्शष्वक्रमवृत्तिः प्रत्ययश्च उसकी उत्पत्ति न हो सकेगी, कारण कि वह युगपत् दो तीन शानोंके विना उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि, वैसा होने में विरोध है। शंका-प्रत्येक द्रव्यमें भेदको प्राप्त हुए प्रत्ययोंके एकता कैसे सम्भव है ? समाधान नहीं, क्योंकि, युगपत् एक जीव द्रव्यमें रहनेवाले और शेय पदार्थोके भेदसे प्रचुरताको प्राप्त हए प्रत्ययोंकी एकतामें कोई विरोध नहीं है। एक शब्दके व्यवहारका कारणभूत प्रत्यय एक प्रत्यय है। विधका ग्रहण भेद प्रकट करनेके लिये है, अतः बहुविधका अर्थ बहुत प्रकार है । जातिमें रहनेवाली बहुसंख्याको अर्थात् अनेक जातियोंको विषय करनेवाला प्रत्यय बहुविध कहलाता है। गाय, मनुष्य, घोड़ा और हाथी आदि जातियों में रहनेवाला अक्रम प्रत्यय चक्षुर्जन्य बहुविध प्रत्यय है। तत, वितत, घन और सुषिर आदि शब्दजातियोंको विषय करनेवाला अक्रम प्रत्यय श्रोत्रज बहुविध प्रत्यय है। कपूर, अगुरु, तुरुष्क (सुगन्धि द्रव्य विशेष) और चन्दन आदि सुगन्ध दव्यों में रहनेवाल योगपद्य प्रत्यय घ्राणज बहुविध प्रत्यय है । तिक्त, कषाय, आम्ल, मधुर और लवण रसोंमें एक साथ रहनेवाला प्रत्यय रसनज बहुविध प्रत्यय है । स्निग्ध, मृदु, कठिन, ऊष्म, गुरु,लघु और १ द्वि-व्यादिप्रत्ययाभावाच्च । एकार्थविषयवर्तिनि विज्ञाने द्वाविमौ इमे त्रय इत्यादिप्रत्यस्यामावः । यतो नैक विज्ञानं द्विध्याद्यर्थानां ग्राहकमस्ति । त. रा. १, १६, ७. २ अल्पश्रोत्रन्द्रियावरणक्षयोपशम आत्मा ततशब्दादीनामन्यतममल्पं शब्दमत्रगृह्णाति । त. रा. १, १६, १५. एकार्थविषयः प्रत्यय एकः । ध अ. प. ११६९. यदा तु वेकमेव कश्चिच्छब्दमवगृह्णाति तदाऽअबह्वग्रहः । नं. सू. (म. वृत्ति) ३६. ३ विधशब्दः प्रकारवाची । स. सि. १, १६. त. रा. १, १६, ७. ४ ध. अ. प. ११६९. पृकृष्ट श्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमादिसनिधाने सति ततादिशब्दविकल्पस्य प्रत्येकमेकद्वि-त्रि-चतुः-संख्येयासंख्येयानन्तगुणस्याग्राहकत्वाद् बहुविधमवगृह्णाति । त रा. १, १६, १५. शंख-प्रटहादिनानाशब्दसमूहमध्ये एकै शब्दमनेकैः पर्यायः स्निग्ध-गाम्भीर्यादिभिविशिष्टं यथावस्थितं यदाऽवग्रहाति तदा स बहुविधावग्रहः । नं. सू. ( म. वृत्ति ) ३६, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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