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________________ पृष्ठ २३१ षट्वंगगमको प्रस्तावना पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ९ दुस्सराणं सुस्सराणं [प्रतियोंमें दुस्सराणं पदही, पर सुस्सराणं होना चाहिये २३ टुस्वरका सुस्वरका ५ णीयागोदाणं णीचुच्चागोदाणं [ प्रतियोंमें णीचागोदाण पाठ , १७ नीच गोत्रका नीच व ऊंच गोत्रका ७ धुवोदयत्तादो' अब्रुवोदयत्तादो २२ ध्रुवोदयी मध्रुवोदयी ५ देवगइपाओग्गाणुपुब्बी [देवगड-] देवगइपाओग्गाणुपुष्वी १८ देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी [ देवगति ], देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी ६ भत्थि, ण,सय अस्थि, इथि-णQसय१७ नपुंसकवेद स्त्री व नपुंसक वेद ५ णिरंतरो सांतर-णिरंतरो १६ निरन्तर सान्तर-निरन्तर २३१ ४ वेउब्धियमिस्स-कम्मश्य वेउब्वियमिस्स [ओरालियमिस्स-कम्माय , १६ वैक्रियिकमिश्र और कार्मण वैक्रियिकमिश्र, [ औदारिकमिश्र] और कर्मिण १३. ३. देवगति, देवगतिद्विक, ३३५ ४ तिरिक्खसु तिरिक्ख-मणुस्सेसु [प्रतियोंमें तिमिखेसु ही पाठ है] ३३५ ५ बंधाभावादो । पुरिसवेदस्त बंधाभावादो। [समचउरससंठाण पसत्थविहायगदि-सुभग-सुस्सर-आदेजाणं मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठीसु सांतरणिरंतरो; तिरिक्ख मणुस्सेसु निरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडियक्त पयडीणं बंधाभाषादो।] पुरिसवेदस्स " १९ तियों और तियचों, मनुष्यों और १३५ २० बन्धका अभाव है। पुरुषवेदका बन्धका अभाव है। [ समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, मुस्वर और भादेयका मिथ्यादृष्टि व सासादन गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तियेच व मनुष्योंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता , क्योंकि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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