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________________ २८२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ६६. केवडिया ? असंखेज्जा पदरस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ सेडीओ । णोकदि-अवत्तवसंचिदा केवडिया ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। तं कधं ? वुच्चदे-संखेज्जावलियाओ अंतरिदूण एगो वा दो वा तिण्णि वा जा उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो वा णिरंतरुवक्कमणकालो लब्भदि त्ति कटु णिरयाउवपढमसमयप्पहुडि संखेज्जावलियमेत्तमुवक्कमणंतरं ठाइदूण तस्सुवरि आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तणिरंतरउवक्कमणकालरयणा कायव्वा । एवं पुणो पुणो कायव्वो जाव अप्पिदाउअसंवुत्तमिदि । संपदि एदेसिमंतराणं विच्चालेसु ट्ठिदउवक्कमणकालाणमाणयणं वुच्चदे -- सगुवक्कमणकालसहिदं संखेज्जावलियमेततरम्हि जदि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तुवक्क्रमणकालो लब्भदि तो अप्पिदाउअम्मि मिस्सीभूद उवक्कमणाणुवक्कमणकालम्मि केत्तियमुवक्कमणकालं लभामो त्ति आवलियाए असंखेज्जदिभागगुणिदसंखेज्जपलिदोवमेसु संखेज्जावलियमेत्तेणोवट्टिदेसु सव्वोवक्कमणकालो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो आगच्छदि । एसो कदि-णोकदि-अवत्तव्वाणं तिण्णं पि कालो। एत्थ सव्वत्थोवो अवत्तव्वुवक्कमणकालो । णोकदिउवक्कमणकालो विसेसाहिओ। कदिउवक्कमणकालो असंखेज्जगुणो। पुणो णोकदिकालमेगरूवेण गुणिदे संचित कितने हैं ? असंख्यात हैं जो कि जगप्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात जगश्रेणी रूप हैं। नोक़तिसंचित और अवक्तव्यकृतिसंचित नारकी कितने हैं ? पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। शंका-पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण कैसे हैं ? समाधान-इस शंकाके उत्तर में कहते हैं कि संख्यात आवलियोंका अन्तर करके एक दो तीन [ समय ] अथवा उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र निरन्तर उपक्रमण काल प्राप्त होता है, ऐसा जानकर नारकायुके प्रथम समयको लेकर संख्यात आवली मात्र उपक्रमणके अन्तरको स्थापित कर उसके ऊपर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र निरन्तर उपक्रमणकालकी रचना करना चाहिये । इस प्रकार विवक्षित आयुके समाप्त होने तक वार वार करना चाहिये। अब इन अन्तरालोके बीच में स्थित उपक्रमणकालोके लानेके विधानको कहते हैं- यदि अपने उपक्रमणकाल सहित संख्यात आवली मात्र अन्तरमें आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र उपक्रमण काल प्राप्त होता है तो विवक्षित आयुमें मिले हुए उपक्रमण और अनुपक्रमण कालमें कितना उपक्रमणकाल प्राप्त होगा, इस प्रकार त्रैराशिक विधानसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित संख्यात पल्योपोंमें संख्यात आवली मात्रका भाग देनेपर सर्व उपक्रमणकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र आता है । यह कृति, नोकृति और अवक्तव्यकृति तीनोंका ही काल है। इसमें सबसे स्तोक अवक्तव्य उपक्रमणकाल है। नोकृति उपक्रमणकाल इससे विशेष अधिक है । इससे कृति उपक्रमणकाल असंख्यातगुणा है । पुनः नोकृतिकालको एक रूपसे गुणित १ प्रतिषु 'मिस्सिभूद-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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