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________________ ४, १, ४४.] कदिअणियोगद्दारे समवसरणपरूवणा कज्जस्स अस्थित्तविरोहादो। तदभावो वि आगमस्स पमाणत्तं जाणादि । तेण दव्यपरूवणा कायव्वा । . (तित्थुप्पत्ती कम्हि खेत्ते ? रविमंडलं व समवट्टे, बारहजोयणविक्खभायामे', एक्किदैणीलमणिसिलाघडिए, पंचरयणकणयविणिम्मियफुरंततेयचउतुंगगोउरधूलिवायारेण परिवेढियपेरंते, तस्संतो तिवायारवेढिय-तिमेहलापीढोवरिद्वियमणिमयदिप्पदीहरचउमाणत्थंभविसिट्ठविकसितोप्पलकंदोहारविंदादिपुप्फाइण्णणंदुत्तरादिवावीणिवहाऊरियधूलीवायारंतभाए, णवणिहिसहियअत्तरसयसंखुवलक्खियअट्ठमंगलावूरिदचउगोउरंतरिदसच्छजलकलिदखाइयापरिवेढिदे, तत्तो परं णाणाविहकुसुमभरेणोण्णयवल्लिवणेण चउरत्यंतरिएण परिवेढियाए, तत्तो परं सुतः अभावको प्रकट करता है, क्योंकि, कारणके अभावमें कार्यके अस्तित्वका विरोध है । और असत्य भाषणका अभाव भी आगमकी प्रमाणताका ज्ञापक है । इसलिये द्रव्यसे अर्थकर्ताकी प्ररूपणा करना चाहिये । तीर्थकी उत्पत्ति किस क्षेत्रमें हुई है ? जो समवसरणमण्डल सूर्यमण्डलके समान समवृत्त अर्थात् गोल है, बारह योजन प्रमाण विस्तार और आयामसे युक्त है, एक इन्द्रनील मणिमय शिलासे घटित है, पांच रत्नों व सुवर्णसे निर्मित और प्रकाशमान तेजसे संयुक्त ऐसे चार उन्नत गोपुर युक्त धूलिसालसे जिसका पर्यन्त भाग घिरा हुआ है, उसके भीतर तीन प्राकारोंसे वेष्टित तीन कटिनी युक्त पीठके ऊपर स्थित माणिमय दैदीप्यमान दीर्घ चार मानस्तम्भोंसे विशिष्ट व विकसित उत्पल, कंदोट्ट (नील कमल) एवं अरविंद आदि पुष्पोंसे व्याप्त ऐसी नन्दोत्तरादि वापियोंके समूहसे जिसमें धूलिप्राकारका अभ्यन्तर भाग परिपूर्ण है, जो नौ निधियोंसे सहित व एक सौ आठ संख्यासे उपलक्षित आठ मंगलद्रव्योंसे परिपूर्ण ऐसे चार गोपुरोंसे व्यवहित स्वच्छ जल युक्त खातिकासे वेष्टित है, इसके आगे चार वीथियोंसे व्यवहित व नाना प्रकारके पुष्पोंके भारसे उन्नत ऐसे वल्लीवन से परिवेष्टित है, इसके आगे तपाये १ प्रतिषु । रविमंडलं वव' इति पाठः । २ रविमंडल व्व वट्टा सयला वि य खंघइंदणीलमई । सामण्णखिदी बारस जोयणमे मि उसहस्स ॥ तत्तो बेकोसूणो पत्तेक्कं भिणाहपज्जतं । चउभागेण विरहिदा पासस्स य वड्डमाणस्स ॥ ति. प. ४, ७१६-७१७. इह केई आइरिया पण्णारसकम्मभूमिजादाणं । तित्थयराणं बारसजोयणपरिमाणमिच्छति ॥ ति.प. ४-७१९. ३ प्रतिष · ए एकिंद-' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'फुटीर', मप्रती 'घटीए' इति पाठः। ५ प्रतिषु । विसद्द ' इति पाठः । ६ प्रतिषु ' सुरत्त' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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