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________________ २७४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ६६. दव्वाणं कदिसद्दो परूवओ ? ण एस दोसो, कम्मकारए वि कदिसद्दणिप्फत्तीदो । एसा सव्वा वि जाणुगसरीर-भवियवदिरित्तदव्वकदी णाम । जा सा गणणकदी णाम सा अणेयविहा । तं जहा- एओ णोकदी, दुवे अवत्तव्वा कदि त्ति वा णोकदि त्ति वा, तिप्पहुडि जाव संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा कदी, सा सव्वा गणणकदी णाम ॥६६॥ एगो णोकदी। कुदो ? जो रासी वग्गिदो संतो वड्वदि सगवग्गादो सगवग्गमूलमवणिय वग्गिज्जमाणो वुड्डिमल्लियइ सो कदी णाम । एगो वग्गिज्जमाणो ण वड्वदि, मूले अवणिदे णिम्मूलं फिट्टदि । तेण एगो णोकदि त्ति वुत्तं । एसो एगो गणणपयारो दरिसिदो । दोरूवेसु वग्गिदेसु वडिदसणादो दोण्णं ण णोकदित्तं । तत्तो मूलमवणिय वग्गिदे ण वड्वदि, पुव्विल्लरासी चेव होदि; तेण दोणं ण कदित्तं पि अस्थि । एदं मणेण अवहारिय दुवे अवत्तव्वमिदि शंका-कृति शब्द इन सब द्रव्योंका प्ररूपक कैसे है ? · समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कर्म कारकमें भी कृति शब्द सिद्ध है। यह सब ही ज्ञायकशरीर-भाविव्यतिरिक्त द्रव्यकृति कहलाती है। जो वह गणनकृति है वह अनेक प्रकार है। वह इस प्रकारसे है- एक संख्या नोकृति है, दो संख्या कृति और नोकृति रूमसे अवक्तव्य है, तीनको आदि लेकर संख्यात, असंख्यात व अनन्त कृति कहलाते हैं; वह सब गणनकृति है ॥६६॥ एक यह नोकृति है, क्योंकि, जो राशि वर्गित होकर वृद्धिको प्राप्त होती है और अपने वर्गमेंसे अपने वर्गके मूलको कम कर वर्ग करनेपर वृद्धिको प्राप्त होती है उसे कृति कहते हैं। एक संख्याका वर्ग करनेपर वृद्धि नहीं होती तथा उसमेंसे वर्गमलके क देनेपर वह निर्मूल नष्ट हो जाती है । इस कारण एक संख्या नोकृति है, ऐसा सूत्र में कहा है। यह 'एक' गणनाका प्रकार बतलाया गया है। दो रूपोंका वर्ग करनेपर चूंकि वृद्धि देखी जाती है अतः दोको नोकृति नहीं कहा जा सकता है । और चूंकि उसके वर्गमेंसे मूलको कम करके वर्गित करनेपर वह वृद्धिको प्राप्त नहीं होती, किन्तु पूर्वोक्त राशि ही रहती है, अतः 'दो' कृति भी नहीं हो सकता । इस बातको मनसे निश्चित कर ' दो संख्या अवक्तव्य है' ऐसा सूत्र में निर्दिष्ट किया है। कम कर १ यस्य कृतौ मूलमपनीय शेषे वर्गिते वर्धिते ( वर्धते ) सा कृतिरिति । त्रि. सा. (टीका ) १६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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