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________________ छक्खंडागमे धैयणाखंड (४, १, ४५. सागरप्रज्ञप्तिः जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिरिति पंचाधिकाराः । तत्र चन्द्रप्रज्ञप्तौ पंचसहस्राधिकषट्त्रिंशच्छतसहस्रपदायां चन्द्रबिम्ब-तन्मार्गायुःपरिवारप्रमाणं चन्द्रलोकः तद्गतिविशेषः तस्मादुत्पद्यमानचन्द्रदिनप्रमाणं राहु-चन्द्रबिम्बयोः प्रच्छाद्य-प्रच्छादकविधानं तत्रोत्पत्तेः कारणं च निरूप्यते' । पदस्थापनात् ३६०५००० । सूर्यप्रज्ञप्तौ त्रिसहस्राधिकपंचशतसहस्रपदायां सूर्यबिम्ब-मार्ग-परिवारायुःप्रमाणं तत्प्रभावृद्धि-हासकारणं सूर्यदिन-मास-वर्ष-युगायनविधानं राहु-सूर्यबिम्ब-प्रच्छाद्यप्रच्छादकविधानं च निरूप्यते । पदांकन्यासः ५०३००० । द्वीप-सागरप्रज्ञप्तौ षट्त्रिंशत्सहस्राधिकद्वापंचाशच्छतसहस्रपदायां ५२३६००० द्वीप-सागराणामियत्ता तत्संस्थानं तद्विस्तृतिः तत्रस्थजिनालया व्यन्तरावासाः समुद्राणां उदकविशेषाश्च निरूप्यन्ते । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती पंचविंशतिसहस्राधिकत्रिशतसहस्रपदायां ३२५००० वर्षधर-वर्षा व्याख्याप्रज्ञप्ति, इस प्रकार पांच अधिकार हैं। उनमें छत्तीस लाख पांच हजार पद प्रमाण चन्द्रप्रज्ञप्तिमै चन्द्रबिम्ब, उसके मार्ग, आयु व परिवारका प्रमाण; चन्द्रलोक, उसका गमनविशेष, उससे उत्पन्न होनेवाले चन्द्रदिनका प्रमाण, राहु और चन्द्रबिम्बमें प्रच्छाद्यप्रच्छादकविधान अर्थात् राहु द्वारा होनेवाले चन्द्र के आवरण की विधि और वहां उत्पन्न होनेका कारण, इस सबकी प्ररूपणा की जाती है। पदोंकी स्थापना ३६०५०००। पांच लाख तीन हजार पद प्रमाण सूर्यप्रज्ञप्तिमें सूर्यबिम्ब, उसके मार्ग, परिवार और आयुका प्रमाण, उसकी प्रभाकी वृद्धि एवं ह्रासका कारण, सूर्यसम्बन्धी दिन, मास, वर्ष और युगके निकालनेकी विधि, तथा राहु व सूर्यबिम्बकी प्रच्छाद्य प्रच्छादकविधि, इस सबका निरूपण किया जाता है। पदके अंकोंकी स्थापना ५०३००० । बावन लाख छत्तीस हजार ५२३६००० पद प्रमाण द्वीप-सागरप्रज्ञप्तिमें द्वीप-समुद्रोंकी संख्या, उनका आकार, विस्तार, उनमें स्थित जिनालय, व्यन्तरोंके आवास, तथा समुद्रोंके जलविशेषोंका निरूपण किया जाता है। तीन लाख पच्चीस हजार ३२५००० पद प्रमाण जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमें .................................... १. खं. पु. १, पृ. १०९. तत्थ चंदपण्णत्ती चंदविमाणाउ-परिवारिधि-गमण-हाणि-वभि-सयलद्धचउत्थभागग्गहणादीणि यष्णेदि । जयध. १, पृ, १३२. चंदस्सायु-विमाणे परिया रिद्धी च अयण गमणं च । सयलद्ध-पायगहण वण्णेदि वि चंदपण्णत्ती ।। छत्तीसलक्ख-पंचसहस्सपययाण चंदपण्णत्ती । अं. प. २, २-३. १.खं. पु. १, पू. ११०. सूराउ-मंडल-परिवारिहि-पमाण-गमणायणुप्पत्ति-कारणादीणि सूरसंबंधाणि सूरपण्णत्ती वण्णेदि । जयध. १, पृ. १३२. सहस्सतियं पणलक्खा पयाणि पणत्तियाक्कस्स ॥ सूरस्साय-विमाणे परिया रिद्धी य अयणपरिमाण । तत्तावमत्तगण वण्णाद वि सूरपण्णत्ती ।। अं. प. २,३-४. ३ प्रतिषु · द्वापंचाशच्छहस्र' इति पाठः । ४.खं. पु.१,१.११०. जा दीव-सागरपण्णत्ती सा दीव-सायराणं तत्थठियजोयिस-वण-भवणाmer आवास पनि संठिदअकहिमजिणभवणाणं च वण्णणं कुणह। जपथ. १, पृ. १३३. अं. प. २,८-११. जिवचारानुसार व डिपजोषित कण-भक्ताः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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