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________________ १८४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १,४५. कम्मपयडिपाहुडस्स एदे चत्तारि वि अवयारा एदेण देसामासियसुतेण परूविदा । तं जहा 'अग्गेणियस्स पुव्वस्स पंचमस्स वत्थुस्स चउत्थे पाहुडे कम्मपयडी णाम । तत्थ इमाणि चवीस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति ' त्ति एदेण सव्वेण वि सुत्तेण उवक्कमो पंचविहो परूविदो । एसो उवक्कमो सेसाणं तिण्णं अवयाराणं उवलक्खणो, तेण ते विएत्थ दट्ठव्वा, एदस्स तदविणाभा वित्तादो । एदमग्गेणियं णाम पुव्वं णाण-सुदंग- दिट्टिवाद-व्वमिद छप्पयारं, णाणादीहिंतो पुधभूदेग्गेणियाभावादो । तेण सिस्समइविष्फारणङ्कं छण्णं पिच अवयारो उच्चदे । तं जहा - णाम- इवणा- दव्व-भावभेण चउग्विहं णाणं । आदिल्ला तिणि विणिक्खेवा दव्वडियणय संठिदा, तिण्णमण्णय दंसणादो । भावो पज्जवडियणय - - कर्मप्रकृतिप्राभृतके ये चारों ही अवतार ( उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय ) इस देशामर्शक सूत्रके द्वारा प्ररूपित किये गये हैं । वह इस प्रकारसे - ' अग्रायणी पूर्वकी पंचम वस्तुके चतुर्थ प्राभृतका नाम कर्मप्रकृति है। उसमें ये चौबीस अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं' इस प्रकार इस समस्त ही सूत्र के द्वारा पांच प्रकार के उपक्रमकी प्ररूपणा की गई है । यह उपक्रम शेष तीन अवतारोंका उपलक्षण है, अत एव उन्हें भी यहां देखना चाहिये; क्योंकि, यह उनका अविनाभावी है । यह अप्रायणी पूर्व ज्ञान, श्रुत, अंग, दृष्टिवाद व पूर्वगतके अन्तर्गत होनेसे छह प्रकार है, क्योंकि, ज्ञानादिकोंसे पृथग्भूत अग्रायणी पूर्वका अभाव है । इसलिये शिष्योंकी बुद्धिको विकसित करनेके लिये उक्त छहोंके चार प्रकारका अवतार कहते हैं । विशेषार्थ — यहां अग्रायणी पूर्वका उद्गम इस प्रकार बतलाया गया है - मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय व केवलके भेदसे ज्ञान पांच प्रकार है। इनमें श्रुतज्ञान मुख्य है, क्योंकि, अग्रायणी पूर्व से उसका ही सम्बन्ध है । वह श्रुतज्ञान भी भंगश्रुत और अनंगश्रुतके भेद से दो प्रकार है । उनमें उक्त कारणसे ही अंगत मुख्य है । वह भी आचारांगादिके भेदसे बारह प्रकार है । इनमें बारहवां दृष्टिवादअंग मुख्य है जो पांच प्रकार है- परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । इनमें पूर्वगत विवक्षित है, क्योंकि, उसके उत्पाद पूर्व आदि चौदह भेदोंमें द्वितीय अग्रायणी पूर्व ही है । अतएव अग्रायणी पूर्व से सम्बद्ध होने के कारण यहां क्रमसे ज्ञान, श्रुतज्ञान, अंगश्रुत, दृष्टिवादअंग, पूर्वगत और अग्रायणी पूर्वके उपक्रमादि चार प्रकार अवतारके कहने की प्रतिज्ञा की गई है । वह इस प्रकार है - नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे ज्ञान चार प्रकार है। इनमें आदि तीन निक्षेप द्रव्यार्थिक नयके आश्रित हैं, क्योंकि, उन तीनके अन्वय देखा जाता है । भावनिक्षेप पर्यायार्थिक नयके निमित्तसे होनेवाला है, क्योंकि, वर्तमान पर्यायसे १ प्रतिषु ' पुव्वभूद ' इति पाठः । Jain Education International २ प्रतिषु ' चव्विहाणं ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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