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________________ ४, १,४५. ] कदिअणियोगद्दारे सुत्तावयरणं णिबंधणो, वट्टमाणपज्जएणुवलक्खियदव्वत्तस्स भावत्तन्भुवगमादो । वुत्तं च णामं ठवणा दवियं ति एस' दव्वट्ठियस्स णिक्खेवो । भाव दुपज्जवट्टियपरूवणा एस परमट्ठों ॥ ६५ ॥ संपहिणिक्खेवट्ठो वुच्चदे - णामणाणं णाणसद्दो अप्पाणम्मि वट्टमाणो । ठवणणाण सो एसो त्ति अभेदेण संकप्पिओ सम्भावासम्भावट्ठी । दुविहं दव्वणाणमागम - णोआगमभेएण । णाणपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो आगमदव्वणाणं, णेगमणयावलंबणादो | णोआगमदव्वणाणं तिविहं जाणुगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तणोआगमदव्वणाणभेएण | जाणुगसरीर - भवियदुगं सुगमं, बहुसो परूविदत्तादो । तव्वदिरित्तणोआगमदव्वणाणं णाणहेदुपोत्थयादिदव्वाणि । णाणपाहुडजाणओ उवजुत्ता भावागमप्पाणं । एत्थ भावागमणाणे पयदं, सेसाणमसंभवादो । एदेण णयणिक्खेवा दो वि परुविदा | अणुगमो वि परुविदो चेव, णय-णिक्खेवाणं तमहि किच्च परुविदत्तादो । एत्थ उवक्कमो आणुपुव्वी - णाम-पमाण-वत्तव्वदत्थाहियारभेण पंचवि उपलक्षित द्रव्यको भाव स्वीकार किया गया है। कहा भी है नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीन द्रव्यार्थिक नयके निक्षेप हैं, किन्तु भाव पर्यायार्थिक नयका निक्षेप है; यह परमार्थ सत्य है ॥ ६५ ॥ अब निक्षेपका अर्थ कहते हैं— नाम ज्ञान अपने आपमें रहनेवाला शान शब्द है 1 'वह यह है' इस प्रकार अभेदसे संकल्पित सद्भाव व असद्भाव रूप अर्थ स्थापनाज्ञान है । द्रव्यज्ञान आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकार है । ज्ञानप्राभृतका जानकार उपयोगसे रहित जीव आगमद्रव्यज्ञान है, क्योंकि, यहां नैगम नयका अवलम्बन है । ज्ञायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यज्ञान के भेदसे नोआगमद्रव्यज्ञान तीन प्रकार है । शायकशरीर और भव्य नोआगमद्रव्यज्ञान ये दो सुगम हैं, क्योंकि, इनकी प्ररूपणा बहुतवार की गई है । ज्ञानकी हेतुभूत पुस्तक आदि द्रव्य तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यज्ञान है । ज्ञानप्राभृतका जानकार उपयोगयुक्त जीव भावागमज्ञान है । यहां भावागमज्ञान प्रकृत है, क्योंकि, शेष ज्ञानोंकी यहां सम्भावना नहीं है । इसके द्वारा नय और निक्षेप दोनोंकी प्ररूपणा की गई है । अनुगमकी भी प्ररूपणा की ही गई है, क्योंकि, उसका ही अधिकार करके नय और निक्षेपकी प्ररूपणा की गई है । 1 यहां आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार के भेदसे पांच प्रकार [ १८५ १ प्रतिषु ' ते सो ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'ठवणाणं' इति पाठः । छ. क. २४. Jain Education International २. खं. पु, १, पृ. १५ पु. ४, पृ. ३. जयथ. १, पृ. २६०. ४ प्रतिषु ' तमइकिच्च ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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