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________________ ९२) छक्खंडागमे वैयणाखंड [४,१,२६. महसां हेतुः तप उपचारेण महा इति भवति । सेसं सुगमं । एदेसिं महातवाणं मण-वयण. कायेहि णमोक्कार करेमि । णमो घोरतवाणं ॥ २६ ॥ उववासेसु छम्मासोववासो, ओमोदरियासु एक्ककवलो, उत्तिपरिसंखासु चच्चरे गोयराभिग्गहो, रसपरिच्चाग्गेसु उण्हजलजुदायणभोयणं, विवित्तसयणासणेसु वय-वग्ध-तरच्छछवल्लादिसावयसेवियासु सज्झ-विज्झुडईसु णिवासो, कायकिलेसेसु तिव्वहिमवासादिणिवदंतविसएसु अब्भोकासरुक्खमूलादावणजोगग्गहणं । एवमभंतरतवेसु वि उक्कतवपरूवणा कायव्वा । एसो बारहविहो वि तवो कायरजणाणं सज्झसजणणो त्ति घोरत्तवो । सो जेसि ते घोरत्तवा । बारसव्विहत्तउक्कट्ठवहाए वट्टमाणा घोरतवा' त्ति भाणदं होदि । एसा वि तवजणिदरिद्धी चेव, अण्णहा एवंविहाचरणाणुववत्तीदो । एदेसिं घोरतवाणं णमो इदि उत्तं होदि । महसू अर्थात् तेजोंका हेतुभूत जो तप है वह उपचारसे 'महा' होता है। शेष सुगम है। इन महातप ऋद्धिधारकोंको मन, वचन व कायसे नमस्कार करता हूं। घोरतप ऋद्धि धारक जिनोंको नमस्कार हो ॥ २६ ॥ उपवासों में छह मासका उपवास, अवमोदर्य तपों में एक ग्रास, वृत्तिपरिसंख्याओंमें चत्वर अर्थात चौराहेमें भिक्षाकी प्रतिज्ञा, रसपरित्यागों में उष्ण जल यक्त ओदनका भोजनः विविक्तशय्यासनोंमें वृक, व्याघ्र, तरक्ष, छबल्ल आदि श्वापद अर्थात् हिन जीवोंसे सेवित सह, विन्ध्य आदि अटवियों में निवास, कायक्लेशों में तीन हिमालय आदिके अन्तर्गत देशों में खुले आकाशके नीचे अथवा वृक्षमूल में आतापन योग अर्थात् ध्यान ग्रहण करना। इसी प्रकार अभ्यन्तर तोमें भी उत्कृष्ट तपकी प्ररूपणा करना चाहिये। यह बारह प्रकार ही तप कायर जनोंको भयोत्पादक है, इसी कारण घोर तप कहलाता है । वह तप जिनके होता है वे घोर तप ऋद्धिके धारक हैं । बारह प्रकारके तपोंकी उत्कृष्ट अवस्थामें वर्तमान साधु घोरतप कहलाते हैं, यह तात्पर्य है। यह भी तपजनित ऋद्धि ही है, क्योंकि, विना तपके इस प्रकारका आचरण बन नहीं सकता। इन घोरतप ऋषीश्वरोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अर्थ है। १ प्रतिषु ' -वुदोयण' इति पाठः। २ प्रतिषु 'अब्भोवास.' इति पाठः । ३ जलसूलप्पमुहाणं रोगेणच्चतपीडिअंगा वि । साहति दुद्धरतवं जीए सा घोरतवरिद्धी॥ ति.. ४-१०५५. वात-पित्त-श्लेष्म-सनिपातसमुद्भूतज्वर-कास-श्वासाक्षि-शूल-कुष्ठ-प्रमेहादिविविधरोगसंतापितदेहा अप्यप्रच्युतानशन-कायक्लेशादितपसो भीमस्मशानाद्रिमस्तकगुहा-दरी-कंदर-शून्यनामादिषु प्रदुष्टयक्ष-राक्षस-पिशाचप्रवृत्तवेतालरुपविकारेषु परुषशिवारुतानुपरसिंह-व्याघ्रादि व्याल मृगभीषणस्वन-पौरचौरादिप्रचरितेष्वभिरुचितावासाच घोरतपसः । त. रा. ३, ३६, २, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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