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________________ १, १, ४६.1 करिअणियोगदौरे कदिभेदपरूवणा कदि त्ति सत्तविहा कदी-णामकदी ठवणकदी दव्वकदी गणणकदी गंधकदी करणकदी भावकदी चेति ॥ ४६ ॥ कदि त्ति एत्थ जो इदिसदो तस्स अट्ठ अत्था--- हेतावेवंप्रकारादौ व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादुर्भावे समाप्तौ च इति-शब्दः प्रकीर्तितः ॥ ८८ ॥ इति वचनात् । एतेष्वर्थेषु क्वायमितिशब्दः प्रवर्तते ? स्वरूपावधारणे । ततः किं सिद्धम् ? कृतिरित्यस्य शब्दस्य योऽर्थः सोऽपि कृतिः, अर्थाभिधान-प्रत्ययास्तुल्यनामधेया' इति न्यायात्तस्य ग्रहणं सिद्धम् । स च कृत्यर्थः सप्तविधः नामकृत्यादिभेदेन । कधमेगो कदिसहो अणेगेसु कृति सात प्रकार है- नामकृति, स्थापनाकृति, द्रव्यकृति, गणनकृति, ग्रन्थकृति, करणकृति और भावकृति ॥ ४६॥ 'कदि त्ति ' यहां जो इति शब्द है उसके आठ अर्थ हैं, क्योंकि, हेतु, एवं, प्रकार, आदि, व्यवच्छेद, विपर्यय, प्रादुर्भाव और समाप्ति, इन अर्थों में इति शब्द कहा गया है ॥ ८६॥ ऐसा वचन है। शंका--- इन अर्थों में से कौनसे अर्थ में यहां इति शब्दकी प्रवृत्ति है ? समाधान -- यहां स्वरूपके अवधारणमें इति शब्दकी प्रवृत्ति हुई है। शंका-इससे क्या सिद्ध होता है ? समाधान-कृति इस शब्दका जो अर्थ है वह भी कृति है, क्योंकि अर्थ, अभिधान और प्रत्यय ये तुल्य नाम है ' इस न्यायसे उसका ग्रहण सिद्ध है। वह कृत्यर्थ नामकृति आदिके भेदसे सात प्रकार है । शंका-एक कृति शब्द अनेक अर्थों में कैसे रहता है ? १ प्रतिषु ' प्रकारादि ' इति पाठः। २ अने. ना. ३९. इति हेतौ प्रकारे च प्रकाशापनुकर्षयोः । इति प्रकरणेऽपि स्यात्समाप्तौ च निदर्शने ॥ विश्वलोचन ( अव्ययवर्ग ) २१. ३ सं. त. ७ ( उद्धृतमिदं तत्र टीकायाम् ). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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